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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पु॒नी॒षे वा॑मर॒क्षसं॑ मनी॒षां सोम॒मिन्द्रा॑य॒ वरु॑णाय॒ जुह्व॑त् । घृ॒तप्र॑तीकामु॒षसं॒ न दे॒वीं ता नो॒ याम॑न्नुरुष्यताम॒भीके॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒नी॒षे । वा॒म् । अ॒र॒क्षस॑म् । म॒नी॒षाम् । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । वरु॑णा॒य । जुह्व॑त् । घृ॒तऽप्र॑तीकाम् । उ॒षस॑म् । न । दे॒वीम् । ता । नः॒ । याम॑न् । उ॒रु॒ष्य॒ता॒म् । अ॒भीके॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनीषे वामरक्षसं मनीषां सोममिन्द्राय वरुणाय जुह्वत् । घृतप्रतीकामुषसं न देवीं ता नो यामन्नुरुष्यतामभीके ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनीषे । वाम् । अरक्षसम् । मनीषाम् । सोमम् । इन्द्राय । वरुणाय । जुह्वत् । घृतऽप्रतीकाम् । उषसम् । न । देवीम् । ता । नः । यामन् । उरुष्यताम् । अभीके ॥ ७.८५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 85; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्म्ममुपदिशन् सैनिकसाहाय्यं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    भो मनुष्याः ! यूयम् (अभीके) अत्र धर्म्ये युद्धे (इन्द्रस्य, वरुणस्य) इन्द्रवरुणसम्बन्धि च (सोमं जुह्वत्) सोमाख्यं हविर्ददतः इदं प्रार्थयध्वम् यत् (वाम्) युवयोः (अरक्षसम्) आसुरभावं त्यक्त्वा (घृतप्रतीकाम्) घृतसदृशस्निग्धया (मनीषाम्) बुद्ध्या प्रार्थनां कृत्वा (पुनीषे) पुनातु (उषसम्) उषसा (न) सदृश्या (देवीम्) दिव्यस्वरूपया (ता) तया बुद्ध्या (यामन्) युद्धाभिगमे (नः) अस्मान् (उरुष्यताम्) सेवेताम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजधर्म का वर्णन करते हुए सैनिक पुरुषों के सहायार्थ सोमादि द्रव्यों का प्रदान कथन करते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम (अभीके) इस धर्मयुद्ध में (इन्द्रस्य, वरुणस्य) इन्द्र तथा वरुण के लिए (सोमं, जुह्वत्) सोमरसप्रदान करके यह कथन करो कि (वां) आपको (अरक्षसं) आसुरभावरहित (घृतप्रतीकां) घृत के समान स्नेहवाली (मनीषां) बुद्धि द्वारा प्रार्थना करके (पुनीषे) पवित्र करे, (उषसं) उषा के (न) समान (देवीं) दिव्यरूपा (ता) बुद्धि द्वारा (यामन्) युद्ध की चढ़ाई के समय (नः) हमको (उरुष्यतां) सेवन करे ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे प्रजाजनों ! तुम इन्द्र=परमैश्वर्य्ययुक्त शूरवीर तथा वरुण=शत्रुसेना को शस्त्रों द्वारा आच्छादन करनेवाले वीर पुरुषों का सोमादि उत्तमोत्तम पदार्थों से सत्कार करके उन्हें प्रसन्न करते हुए अपनी स्नेहपूर्ण शुद्ध बुद्धि द्वारा सदैव उनकी रक्षा के लिए प्रार्थना करो, जिससे वे शत्रुओं का पराजय करके तुम्हारे लिए सुखदायी हों। तुम युद्ध में चढ़ाई के समय उनके सहायक बनो और उनको सदा प्रेम की दृष्टि से देखो, क्योंकि जहाँ प्रजा-राजपुरुषों में परस्पर प्रेम होता है, वहाँ सदैव आनन्द बना रहता है, इसलिए तुम दोनों परस्पर प्रेम की वृद्धि करो ॥१॥

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    विषय

    इन्द्र, वरुण-उत्तम शासक तथा वायु जल और स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! वरुण ! हे ऐश्वर्यवन् ! हे श्रेष्ठ जन ! मैं ( इन्द्राय वरुणाय ) इन्द्र और वरुण, ऐश्वर्यवान् श्रेष्ठ पुरुष के लिये ( सोमं जुह्वत् ) ऐश्वर्य प्रदान करता हुआ ( वाम् ) आप दोनों की ( अरक्षसं मनीषाम् ) दुष्ट पुरुषों के संग से रहित बुद्धि को ( पुनीषे ) पवित्र करूं। राजा और सेनापति को प्रजा पर्याप्त धन देकर उसके चित्त से प्रजा को लूटने खसोटने की राक्षसी प्रवृत्ति को दूर करे। ( घृत-प्रतीकाम् ) स्नेह से सब को उत्तम प्रतीत होने वाली ( उपसं देवीं ) शत्रु को दग्ध करने और विजय की कामना करने वाली उस मन की प्रज्ञा को मैं स्वच्छ करूं। (ता) वे दोनों ( अभीके यामन् ) युद्धप्रयाण काल में ( नः उरुष्यताम् ) हमारी रक्षा करें, आधिदैविक पक्ष में इन्द्र वायु, वरुण जल इनको पवित्र करने के लिये मैं यजमान पुरुष 'सोम' ओषधि समूह को अग्नि में आहुति देकर, हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों की दुष्ट संग से रहित बुद्धि को पवित्र करूं। घृत से प्रदीप्त दाह करने वाली ‘ उषाः ’ अग्नि शिखा के समान उज्ज्वल करूं। आप दोनों ( अभीके यामन् उरुष्यताम् ) परस्पर समीप के प्रेमविवाहबन्धन में बंधकर परस्पर की रक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते। छन्दः—१, ४ आर्षी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विद्वान् की प्रेरणा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे ऐश्वर्यवन् ! हे श्रेष्ठ जन! मैं (इन्द्राय वरुणाय) = इन्द्र और वरुण ऐश्वर्यवान् श्रेष्ठ पुरुष के लिये (सोमं जुह्वत्) = ऐश्वर्य देता हुआ (वाम्) = आप दोनों की (अरक्षसं मनीषाम्) = दुष्टसंग-रहित बुद्धि को पुनीषे पवित्र करूँ। घृत (प्रतीकाम्) = स्नेह से सबको उत्तम लगनेवाली, (उषसं देवीं) = शत्रु को दग्ध करने और विजय की कामनावाली मन की प्रज्ञा को मैं स्वच्छ करूँ। (ता) = वे दोनों (अभीके यामन्) = युद्ध-प्रयाण-काल में (नः उरुष्यताम्) = हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् पुरुष राजा तथा सेनापति दोनों को दुष्टों के संग से दूर रहने की प्रेरणा देकर उनकी बुद्धि को पवित्र करे, जिससे उनके मन में शत्रु का नाश करके विजय की कामना होती रहे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I dedicate and sanctify the song of adoration free from evil, enmity and malice, and offer it to Indra and Varuna, having made a presentation of holy soma to the ruler warrior and the chief of justice. It is soft and sweet and brilliant, full of power like the divine dawn. May Indra and Varuna come and inspire us to shine in our battle of life against evil with full divine protection.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे प्रजाजनांनो! तुम्ही इंद्र परम ऐश्वर्ययुक्त शूरवीर व वरुण = शत्रू सेनेला शस्त्रांद्वारे आच्छादन करणारे वीrर, या पुरुषांचा सोम इत्यादी उत्तमोत्तम पदार्थांनी सत्कार करून त्यांना प्रसन्न करा. आपल्या स्नेहपूर्ण शुद्ध बुद्धीद्वारे सदैव त्यांच्या रक्षणाची प्रार्थना करा. ज्यामुळे शत्रूंचा पराजय करून ते तुमच्यासाठी सुखदायी व्हावेत. युद्धात आक्रमण करताना तुम्ही त्यांचे सहायक बना, त्यांच्यावर नेहमी प्रेमपूर्ण दृष्टी ठेवा. कारण जेथे प्रजा व राजपुरुष यांच्यात परस्पर प्रेम असते. तेथे सदैव आनंद असतो. त्यासाठी तुम्ही परस्पर प्रेम वृद्धिंगत करा. ॥१॥

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