Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 86 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धीरा॒ त्व॑स्य महि॒ना ज॒नूंषि॒ वि यस्त॒स्तम्भ॒ रोद॑सी चिदु॒र्वी । प्र नाक॑मृ॒ष्वं नु॑नुदे बृ॒हन्तं॑ द्वि॒ता नक्ष॑त्रं प॒प्रथ॑च्च॒ भूम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धीरा॑ । तु । अ॒स्य॒ । म॒हि॒ना । ज॒नूंषि॑ । वि । यः । त॒स्तम्भ॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । चि॒त् । उ॒र्वी इति॑ । प्र । नाक॑म् । ऋ॒ष्वम् । नु॒नु॒दे॒ । बृ॒हन्त॑म् । द्वि॒ता । नक्ष॑त्रम् । प॒प्रथ॑त् । च॒ । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धीरा त्वस्य महिना जनूंषि वि यस्तस्तम्भ रोदसी चिदुर्वी । प्र नाकमृष्वं नुनुदे बृहन्तं द्विता नक्षत्रं पप्रथच्च भूम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धीरा । तु । अस्य । महिना । जनूंषि । वि । यः । तस्तम्भ । रोदसी इति । चित् । उर्वी इति । प्र । नाकम् । ऋष्वम् । नुनुदे । बृहन्तम् । द्विता । नक्षत्रम् । पप्रथत् । च । भूम ॥ ७.८६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वरुणरूपपरमात्मन उपासनया मनुष्यजन्मनः फलं निरूप्यते।

    पदार्थः

    (यः) य ईश्वरः (वि) सम्यक् (उर्वी) विस्तीर्णे (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (चित्) निश्चयं (तस्तम्भ) स्तब्धे अकरोत्, तथा यः (बृहन्तम्) महान्ति (नक्षत्रं) नक्षत्राणि (च) पुनः (भूम) भूमिं (पप्रथत्) अररचत् तथा (नाकम्) स्वर्गं (ऋष्वम्) नरकं च (द्विता) द्विधा (नुनुदे) व्यररचत् (तु) निश्चयेन (अस्य) इमं वरुणस्वरूपं परमात्मानं (धीरा) धैर्यवन्तो जनाः (महिना) महत्त्वेन (जनूंषि) तज्जन्मना सह बुध्यन्ते ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब वरुणरूप परमात्मा की उपासना से मनुष्य-जीवन की पवित्रता कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (वि) भलीभाँति (रोदसी) द्युलोक (चित्) और (उर्वी) पृथिवीलोक को (तस्तम्भ) थामे हुए है और जो (बृहन्तं) बड़े-बड़े (नक्षत्रं) नक्षत्रों को (च) और (भूम) पृथिवी को (पप्रथत्) रचता, तथा (नाकम्) स्वर्ग (ऋष्वं) नरक को (द्विता) दो प्रकार से (नुनुदे) रचता है (तु) निश्चय करके (अस्य) इस वरुणरूप परमात्मा को (धीरा) धीर पुरुष (महिना) महत्त्व द्वारा (जनूंषि) जानते अर्थात् उसके ज्ञान का  लाभ करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा इस सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का रचयिता है और जिसने कर्मानुसार स्वर्ग=सुख और नरक=दुःख को रचा है, उसके महत्त्व को धीर पुरुष ही विज्ञान द्वारा अनुभव करते हैं, जैसा कि अन्यत्र भी वर्णन किया है कि–“तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीराः। तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा” यजु० ॥३१॥१९॥ सम्पूर्ण ब्रहमाण्डों की योनि=उत्पत्तिस्थान परमात्मा को धीर पुरुष ही ज्ञान द्वारा अनुभव करते हैं, जो सबको अपने वश में किये हुए है। इसी भाव को महर्षि व्यास ने “ योनिश्चेह गीयते” ॥ब्र० सू० १।४।२७॥ में वर्णन किया है कि एकमात्र परमात्मा ही सब भूतों की योनि=निमित्त कारण है और “आनीदवातं स्वधया तदेकं” ॥ऋग्० मं. १०।२९।२॥ में भलीभाँति वर्णन किया है कि स्वधा=माया=प्रकृति के साथ वह एक है अर्थात् परमात्मा निमित्तकारण और प्रकृति उपादानकारण है। इसी भाव को श्वेताश्वरोपनिषद् में इस प्रकार वर्णन किया है कि “मायान्तु प्रकृतिं विद्यात्, मायिनन्तु महेश्वरं”=माया को प्रकृति जान अर्थात् माया तथा प्रकृति ये दोनों उस उपादानकारण के नाम हैं और “मायिनं” प्रकृतिवाला उस महेश्वर=परमात्मा को जानो। इससे सिद्ध है कि वही परमात्मा इस सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का रचयिता और वही सबका नियन्ता=नियम में चलानेवाला है, उसकी महिमा को ज्ञान द्वारा अनुभव करके उसी की उपासना करनी चाहिए, अन्य की नहीं ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वरुण, परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    वरुण परमेश्वर का स्वरूप। ( अस्म महिना ) इस महान् सामर्थ्य से (जनूंषि ) जन्म लेने वाले समस्त प्राणि वर्ग ( धीरा ) बुद्धत होते हैं। ( यः ) जो ( चित् ) पूजनीय ( उर्वी रोदसी ) विशाल सूर्य या आकाश और भूमि दोनों लोकों को ( तस्तम्भ ) थामे हुए है, वह ही ( बृहन्तं ) बड़े भारी ( ऋष्वं ) महान् ( नाकम् ) सुखस्वरूप परमानन्द को ( प्र नुनुदे ) प्रदान करता है, वही बड़े भारी सूर्य को भी चलाता है । वह ही ( भूम नक्षत्रं च ) बहुत से नक्षत्र गण को ( पप्रथत् ) विस्तृत करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४, ५, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वधारक परमेश्वर

    पदार्थ

    पदार्थ- वरुण परमेश्वर (अस्य महिना) = इसके महान् सामर्थ्य से (जनूंषि) = जन्मधारी समस्त प्राणी (धीरा) = बुद्धि और कर्म द्वारा प्रेरित होते हैं। (यः) = जो (चित्) = पूजनीय (उर्वी रोदसी) = विशाल आकाश और भूमि को तस्तम्भ = थामे है, वह ही (बृहतं) = बड़े (ऋष्वं) = महान् (नाकम्) = सुखस्वरूप परमानन्द को (प्र नुनुदे) = देता है। वह ही (भूम नक्षत्रं च) = बहुत से नक्षत्रों को (पप्रथत्) = फैलाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- इस भूमि, आकाश तथा नक्षत्रों को महान् सामर्थ्यवाला परमेश्वर ही रचकर टिकाता है। वही सुखों का दाता तथा परमानन्द का प्रदाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (यः-उर्वी रोदसी चित्) जो वरुण-वरने योग्य वरने वाला परमात्मा विश्व या खगोल के दो महान् "रोदसी-रोधसी विरोधनात्-रोधः कूलं निरुणद्धि स्रोतः" (निरु० ६।१) रोधन करनेवाले दोनों ओर से कटाह सम्पुट-दो कटाहों के मुखमेल के समान वर्त्तमान उत्तर गोलार्द्ध दक्षिण गोलार्द्ध सीमाओं को भी (वित्तस्तम्भ) थामे हुए- नियन्त्रित किये हुए सम्भाले हुए बाँधे हुए हैं और जिसने (ऋष्वं नाकं प्र नुनुदे) उन सीमारूप दोनों गोलार्द्धसम्पुटों के अन्दर महान् "ऋष्वं महन्नाम" (निघ० ३।३) द्युमण्डल-नक्षत्रगण क्षेत्र-जिसमें नक्षत्रगण रहते हैं "नाकं द्युमण्डलम्" (निरु० २।१३) उसे प्रेरित किया सृजा प्रगतिशील बनाया (च) और जिसके अन्दर (बृहन्तं नक्षत्रं भूम द्विता पप्रथत्) महान् "बृहत्-महन्नाम" (निघ० ३।३) नक्षत्रगण को बहुत दूर दूर दो विभागों में उत्तरगोलार्द्ध और दक्षिण गोलार्द्ध, दृष्टगतिवाले, अदृष्टगतिवाले, प्रकाशक और प्रकाश्य के भेदों से विस्तारित किया फैलाया (तु) तो पुन: प्रत्येक नक्षत्र लोकपिण्ड पर (अस्य महिना जनूंषि धीरा) इस वरुणरूप परमात्मा की महिमा से महती शक्ति द्वारा 'जनूंषि जायन्ते प्राणिनों येषु तानि जन्मानि योनयः' जीव जिनमें जन्मते हैं वे योनियां भिन्न भिन्न शरीर 'धीरा-धीराणि दृढानि' दृढ बन्धन रूप हैं-आत्माओं के बांधने वाले हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    वसिता-परमात्मा में शरीर बसने वाला, वसीयान् परमात्मा में पूर्वापेक्षया अधिक वसनेवाला जिसका मन भी वस गया वह आस्तिक-जन। वसिष्ठ-पुनः उससे अत्यधिक परमात्मा में वसनेवाला जिसका आत्मा भी वस गया वह उपासक जैसे "तेजोऽसि तेजो मयि धेहि" (यजु० १९।९) संसार में कोई वरने योग्य वस्तु है वह हमें नहीं वरती जड होने से या उसका हमसे स्वार्थ सिद्ध नहीं होता या हमें वह वरना चाहता है पर हमारे वरने योग्य नहीं होने से, वरने योग्य और वरने वाला होने पर भी देश-काल-परिस्थितियाँ बाधक हो जाती हैं । परन्तु परमात्मा और हमारे मध्य कोई बाघक न होने से वह सदैव वरने योग्व और वरने वाला है तथा सारे संसार को आवृत कर अपने अन्दर घेर कर रखने वाला होने से भी वरुण है ।

    विशेष

    ऋषिः-वसिष्ठः (परमात्मा में अतिशय से वसनेवाला उपासक) देवता- वरुणः (वरने योग्य तथा वरनेवाला उभयगुणसम्पन्न परमात्मा)

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Firm in balance are the creations of this Varuna, light of the universe, by virtue of his greatness as he holds and stabilises the heaven and earth and indeed the expanding universe. He energises and impels the high heavens of bliss and the distant stars and lights them both day and night, pervading the vast world of existence. Only the wise and brave know this.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्मा या संपूर्ण ब्रह्मांडाचा निर्माता आहे व ज्याने कर्मानुसार स्वर्ग = सुख व नरक = दु:ख दिलेले आहे. त्याचे महत्त्व धीर पुरुष विज्ञानाद्वारे अनुभवतो, असे अन्यत्रही वर्णन आहे.

    टिप्पणी

    ‘तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरा: । $ तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा’ यजु. ॥३१॥१९॥ $ संपूर्ण ब्रह्मांडाची योनी = उत्पत्तिस्थान परमात्म्याला धीर पुरुषच ज्ञानाद्वारे अनुभवतात. त्याने सर्वांना आपल्या वशमध्ये ठेवलेले आहे. याच भावाने महर्षी व्यासाने ‘योनिश्चेह-गीयते’ ॥ब्र. सू. १/४/२७॥ मध्ये वर्णन केलेले आहे, की एकमेव परमात्माच सर्व भूतांची योनी = निमित्त कारण आहे व ‘अनीतवातं स्वधया तेदकं’ ॥ ऋग्. मं. १०/२९/२॥ मध्ये वर्णन केलेले आहे, की स्वधा = माया=प्रकृती बरोबर तो एक आहे. अर्थात, परमात्मा निमित्त कारण व प्रकृती उपादान कारण आहे. याच भावाला श्वेताश्वरोपनिषदामध्ये या प्रकारे वर्णन केलेले आहे, की ‘मायान्तु प्रकृतिं विघात् मायिनन्तु महेश्वर’ = मायेला प्रकृती जाणून अर्थात माया व प्रकृती हे दोन्ही त्या उपादान कारणाची नावे आहेत व ‘मायिन’ प्रकृतियुक्त त्या महेश्वर परमात्म्याला जाणा. यावरून सिद्ध होते तोच परमात्मा या संपूर्ण ब्रह्मांडाचा रचनाकार व तोच सर्वांचा नियन्ता=नियमाने चालविणारा आहे. त्याचा महिमा ज्ञानाद्वारे जाणून, अनुभव करून त्याचीच उपासना केली पाहिजे, इतरांची नाही. ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top