ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
प्र शु॒न्ध्युवं॒ वरु॑णाय॒ प्रेष्ठां॑ म॒तिं व॑सिष्ठ मी॒ळ्हुषे॑ भरस्व । य ई॑म॒र्वाञ्चं॒ कर॑ते॒ यज॑त्रं स॒हस्रा॑मघं॒ वृष॑णं बृ॒हन्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । शु॒न्ध्युव॑म् । वरु॑णाय । प्रेष्ठा॑म् । म॒तिम् । व॒सि॒ष्ठ॒ । मी॒ळ्हुषे॑ । भ॒र॒स्व॒ । यः । ई॒म् । अ॒र्वाञ्च॑म् । कर॑ते । यज॑त्रम् । स॒हस्र॑ऽमघम् । वृष॑णम् । बृ॒हन्त॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र शुन्ध्युवं वरुणाय प्रेष्ठां मतिं वसिष्ठ मीळ्हुषे भरस्व । य ईमर्वाञ्चं करते यजत्रं सहस्रामघं वृषणं बृहन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । शुन्ध्युवम् । वरुणाय । प्रेष्ठाम् । मतिम् । वसिष्ठ । मीळ्हुषे । भरस्व । यः । ईम् । अर्वाञ्चम् । करते । यजत्रम् । सहस्रऽमघम् । वृषणम् । बृहन्तम् ॥ ७.८८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरस्वरूपप्राप्तिरुपदिश्यते।
पदार्थः
(वसिष्ठ) भोः सद्गुणसम्पन्न विद्वन् ! भवान् (वरुणाय) सर्वाधिष्ठानाय (मीळ्हुषे) सर्वान् बिभ्रते परमात्मने (प्रेष्ठाम्) प्रियतमां (शुन्ध्युवम्) अविद्यानाशिनीं (मतिम्) बुद्धिं (प्र, भरस्व) दधातु (यः) योऽसौ परमात्मा (यजत्रम्) प्राकृतयज्ञं कुर्वन्तम् (सहस्रामघम्) अनन्तबलदं (वृषणम्) वृष्टिकर्त्तारं (बृहन्तम्) सर्वतोऽधिकं (ईम्, अर्वाञ्चम्, इमम्) प्रत्यक्षदेवं सूर्यं (करते) जनयति तमेवानन्यचेताः सन्नुपास्व ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर की भक्ति कथन की जाती हैं।
पदार्थ
(वसिष्ठ) हे सर्वोत्तम गुणवाले विद्वन् ! आप (वरुणाय) सर्वाधार परमात्मा (मीळ्हुषे) जो भरण-पोषण करनेवाला है, उसके लिये (प्रेष्ठाम्) प्रेममयी (शुन्ध्युवम्) अविद्या के नाश करनेवाली (मतिम्) बुद्धि को (प्र, भरस्व) धारण करें, (यः) जो परमात्मा (यजत्रम्) प्राकृतयज्ञ करनेवाले (सहस्रामधम्) अनन्त प्रकार के बल को देनवाले (वृषणम्) वृष्टि करनेवाले (बृहन्तम्) सबसे बड़े (ईम्, अर्वाञ्चम्) इस प्रत्यक्षसिद्ध सूर्य को जो (करते) उत्पन्न करता है, तुम एकमात्र उसी की उपासना करो ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे स्नातक विद्वानों ! तुम उसकी उपासना करो, जिसने सूर्य-चन्द्रमा को निर्माण किया है और जो इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय का कारण है, जिसके भय से अग्न्यादि तेजस्वी पदार्थ अपने-अपने तेज को धारण किये हुये हैं, जैसा कि “भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥” कठ० ६,३,॥ उसके भयसे अग्नि तपती है, उसी के भय से सूर्य प्रकाश करता है, विद्युत् और वायु इत्यादि शक्तियें उसी के बल से परिभ्रमण करती हैं। “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्” ऋग् मं० १० सू० १९०।३॥ जिसने सूर्यचन्द्रादि पदार्थों को रचा है, उसी धाता सब निर्माता परमात्मा की उपासना पूर्व मन्त्र में कथन की गयी है ॥१॥
विषय
वरुण परमेश्वर का वर्णन । निष्पक्षपात प्रभु ।
भावार्थ
( यः ) जो परमेश्वर ( ईम् ) इस ( अर्वाञ्चं ) अभिमुख आये ( यजत्रं ) दानशील, आत्मसमर्पक और सत्संगति करने वाले पुरुष को ( सहस्र-मघं ) सहस्रों धनों से सम्पन्न, ( वृषणं ) बलवान्, मेघवत् उदार और ( बृहन्तम् करते ) बड़ा बना देता है उस ( वरुणाय ) सर्वश्रेष्ठ, सब को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले ( मीढुषे ) ऐश्वर्यों की प्रजाजनों पर मेघवत् निष्पक्षपात होकर वृष्टि करने वाले, सब के सेचक और वर्धक परमेश्वर के निमित्त (प्रेष्ठां) अति उत्तम, प्रिय (मतिं) स्तुति और बुद्धि का ( प्र भरस्व ) प्रयोग कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
आत्मसमर्पण -
पदार्थ
पदार्थ (यः) = जो परमेश्वर (ईम्) = इस (अर्वाञ्चं) = अभिमुख आये (यजत्रं) = आत्मसमर्पक और सत्संगतिवाले पुरुष को (सहस्र-मघं) = सहस्रों धनों से सम्पन्न, (वृषणं) = मेघवत् उदार और (बृहन्तम्) = करते-बड़ा बना देता है उस (वरुणाय) = ऐश्वर्यदाता (मीढुषे) = ऐश्वर्यों की वृष्टि करनेवाले, परमेश्वर के निमित्त (प्रेष्टां) = अति प्रिय (मतिं) = स्तुति और बुद्धि का (प्र भरस्व) = प्रयोग कर।
भावार्थ
भावार्थ- जो उपासक सत्संगति में रहते हुए ईश्वर के प्रति सर्वभाव से समर्पण करते हैं उसी की स्तुति करते हैं वे ऐश्वर्यशाली होकर उदार तथा महान् बनते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Holiest sage and brilliant scholar, develop pure, purifying and transparent intelligence of the dearest order and offer reverence and yajnic homage to Varuna, potent and generous lord inspirer of life, who creates, energises and brings us the great adorable sun and the expansive and deepening cloud of showers bearing a thousandfold wealth of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे स्नातक विद्वानांनो! ज्याने सूर्य, चंद्र निर्माण केलेले आहेत त्याची तुम्ही उपासना करा. जो या जगाची उत्पत्ती, स्थिती, प्रलयाचे कारण आहे. ज्याच्या भयाने अग्नी इत्यादी तेजस्वी पदार्थांनी आपापले तेज धारण केलेले आहे. जसे ‘भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य: ।
टिप्पणी
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चय: ॥ कठ. ६/३॥ $ त्याच्या भयाने अग्नी तापतो व त्याच्या भयाने सूर्य प्रकाश देतो. विद्युत व वायू इत्यादी शक्ती त्याच्या बलाने परिभ्रमण करतात ‘सूर्याचन्द्रमसौधाता यथापूर्वमकल्पयत’ ॥ऋ.मं. १० सूक्त १९०३॥ ज्याने सूर्यचंद्र इत्यादी पदार्थांची निर्मिती केलेली आहे त्याच धाता निर्माता परमेश्वराची उपासना पूर्व मंत्रात सांगितलेली आहे. ॥१॥
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