ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
मो षु व॑रुण मृ॒न्मयं॑ गृ॒हं रा॑जन्न॒हं ग॑मम् । मृ॒ळा सु॑क्षत्र मृ॒ळय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । व॒रु॒ण॒ । मृ॒त्ऽमय॑म् । गृ॒हम् । रा॒ज॒न् । अ॒हम् । ग॒म॒म् । मृ॒ळ । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु वरुण मृन्मयं गृहं राजन्नहं गमम् । मृळा सुक्षत्र मृळय ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । सु । वरुण । मृत्ऽमयम् । गृहम् । राजन् । अहम् । गमम् । मृळ । सुऽक्षत्र । मृळय ॥ ७.८९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथास्मिन् एकोननवतितमे सूक्त ईश्वरो जीवार्थं ऐश्वर्य्यं निरूपयति।
पदार्थः
(वरुण) हे सर्वशक्तिमन् ! (मृन्मयम्) मृदानिर्मितं (गृहम्) गृहमस्मभ्यं मा दाः (राजन्) हे तेजोमय ! मृण्मये गृहे वयं (मोषु) मा वात्स्म (मृळय) अस्मान् सुखय (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक ! (मृळय) सर्वदास्मान् रक्ष ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस सूक्त में परमात्मा जीव को ऐश्वर्य्यप्राप्ति का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
(वरुण) हे सर्वशक्तिमन् परमात्मन् ! (मृन्मयं) मृत्तिका के (गृहं) घर आप हमको मत दें, (राजन्) हे सर्वशक्तिमन् परमात्मन् ! हम मट्टी के गृहों में (मोषु) मत निवास करें, (मृळय) हे जगदीश्वर ! आप हम को सुख दें (सुक्षत्र) हे सबके रक्षक परमात्मन् ! (मृळय) आप हम पर सदैव दया करें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा ने उक्त ऐश्वर्य्य का उपदेश किया है कि हे जीवो ! तुम सदैव अपने जीवन के लक्ष्य को ऊँचा रक्खा करो और तुम यह प्रार्थना किया करो कि हम मट्टी के घरों में मत रहें, किन्तु हमारे रहने के स्थान अति मनोहर स्वर्णजटित सुन्दर हों तथा उनमें परमात्मा हमको सब प्रकार के ऐश्वर्य्य दें ॥१॥
विषय
देह-बन्धन से मुक्ति की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( वरुण ) सब दुखों को दूर करने हारे ! सब से उत्तम पद के लिये वरने योग्य ! सर्वश्रेष्ठ ! हे ( राजन् ) देदीप्यमान ! हे ( सुक्षत्र) उत्तम धन, ऐश्वर्य और बल से सम्पन्न ! ( अहम् ) मैं ( मृन्मयं गृहम् ) मट्टी के बने गृह के तुल्य कच्चे इस ( मृन्मयं = मृत्-मयं ) मृत्यु से आक्रान्त शव तुल्य, अवश्य ग्रहण करने योग्य वा आत्मा को पकड़े हुए इस देह को ( मोषु गमम् ) अब कभी न प्राप्त करूं तो अच्छा हो । हे प्रभो ! ( मृड ) सब को सुखी करने हारे दयालो ! तू ( मृडय ) सुखी कर, हम पर दया कर । प्रजा भी राजा से यही चाहे कि वे मट्टी के घरों में न रह कर पक्के मकानों में रहें और समृद्ध और सुखी हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । वरुणो देवता ॥ छन्दः—१—४ आर्षी गायत्री । ५ पादनिचृज्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दयालु की दया
पदार्थ
पदार्थ- हे (वरुण) = सर्वश्रेष्ठ! हे (राजन्) = देदीप्यमान ! हे (सुक्षत्र) = उत्तम धन, ऐश्वर्य, बल से सम्पन्न ! (अहम्) = मैं (मृन्मयं गृहम्) = मिट्टी के बने गृह के तुल्य नश्वर, मृत्यु से आक्रान्त, वा ग्रहणयोग्य, वा आत्मा को पकड़े हुए इस देह को (मोषु गमम्) = कभी न प्राप्त करूँ तो अच्छा हो ! हे प्रभो! (मृड) = सबको सुखी करने हारे दयालो ! तू (मृडय) = सुखी कर, हम पर दया कर।
भावार्थ
भावार्थ- जीवों को आवागमन से छूटने के लिए वरुण परमात्मा की दया प्राप्त करनी चाहिए इसके लिए देहाभिमान को छोड़ने तथा ईश्वर की दीप्ति से जुड़ने का प्रयास करना चाहिए।
इंग्लिश (1)
Meaning
Varuna, refulgent ruling lord of the world, just and merciful, let me not be destined to go to the house of clay. Be gracious, O holy lord of the world order, give me peace and joy.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याने ऐश्वर्याचा उपदेश केलेला आहे. हे जीवांनो! तुम्ही आपल्या जीवनाचे लक्ष्य सदैव उच्च ठेवा व ही प्रार्थना करा, की आम्ही मातीने बांधलेल्या घरात राहता कामा नये, तर आमच्या राहण्याचे स्थान अति मनोहर स्वर्णजडित सुंदर असावे व त्यात परमात्म्याने आम्हाला सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य द्यावे ॥१॥
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