ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
अबो॑धि जा॒र उ॒षसा॑मु॒पस्था॒द्धोता॑ म॒न्द्रः क॒वित॑मः पाव॒कः। दधा॑ति के॒तुमु॒भय॑स्य ज॒न्तोर्ह॒व्या दे॒वेषु॒ द्रवि॑णं सु॒कृत्सु॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि । जा॒रः । उ॒षसा॑म् । उ॒पऽस्था॑त् । होता॑ । म॒न्द्रः । क॒विऽत॑मः । पा॒व॒कः । दधा॑ति । के॒तुम् । उ॒भय॑स्य । ज॒न्तोः । ह॒व्या । दे॒वेषु॑ । द्रवि॑णम् सु॒कृत्ऽसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोधि जार उषसामुपस्थाद्धोता मन्द्रः कवितमः पावकः। दधाति केतुमुभयस्य जन्तोर्हव्या देवेषु द्रविणं सुकृत्सु ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअबोधि। जारः। उषसाम्। उपऽस्थात्। होता। मन्द्रः। कविऽतमः। पावकः। दधाति। केतुम्। उभयस्य। जन्तोः। हव्या। देवेषु। द्रविणम् सुकृत्ऽसु ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के विद्वांसः सेवनीया इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा रात्रेर्जारः सूर्य उषसामुपस्थादुभयस्य जन्तोर्हव्या केतुं द्रविणञ्च देवेषु दधाति तथा होता मन्द्रः कवितमः पावको विद्वान् जन्तोर्हव्या सुकृत्सु देवेषु द्रविणं केतुञ्च दधाति स्वयमबोध्यज्ञान् बोधयति तमेवाध्यापकं विद्वांसं सततं सेवध्वम् ॥१॥
पदार्थः
(अबोधि) बोधयति (जारः) रात्रेर्जरयिता सूर्यः (उषसाम्) प्रातर्वेलानाम् (उपस्थात्) समीपात् (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दयिता (कवितमः) विद्वत्तमः (पावकः) पवित्रीकरः (दधाति) (केतुम्) प्रज्ञाम् (उभयस्य) इहाऽमुत्र भवस्य (जन्तोः) जीवस्य (हव्या) होतुमर्हाणि वस्तूनि (देवेषु) पृथिव्यादिषु विद्वत्सु वा (द्रविणम्) धनं बलं वा (सुकृत्सु) पुण्याऽऽत्मसु ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो यथा सूर्यो रात्रिं निवार्य्य प्रकाशं जनयति तथाऽविद्यां निवार्य्य विद्यां जनयन्ति ते यथा धार्मिको न्यायाधीशो राजा पुण्यात्मसु प्रेम दधाति तथा शमदमादियुक्तेषु श्रोतृषु प्रीतिं विदध्युः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब छः ऋचावाले नवमे सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में फिर कौन विद्वान् सेवने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (जारः) रात्रि का नाश करनेवाला सूर्य (उषसाम्) प्रातःकाल की वेलाओं के (उपस्थात्) समीप से (उभयस्य) इस लोक परलोक में जाने आनेवाले (जन्तोः) जीवात्मा के (हव्या) होमने योग्य वस्तुओं को (केतुम्) बुद्धि को और (द्रविणम्) धन वा बल को (देवेषु) पृथिव्यादि वा विद्वानों में (दधाति) धारण करता है तथा (होता) दानशील (मन्द्रः) आनन्दाता (कवितमः) अति प्रवीण (पावकः) पवित्रकर्ता विद्वान् जीव के ग्राह्य वस्तुओं को (सुकृत्सु) पुण्यात्मा विद्वानों में धन और बुद्धि का धारणकरता स्वयं अज्ञानियों को (अबोधि) बोध कराता, उसी अध्यापक विद्वान् की निरन्तर सेवा करो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् जैसे रात्रि को सूर्य निवारण कर प्रकाश को उत्पन्न करता, वैसे अविद्या का निवारण करके विद्या को प्रकट करते हैं, वे जैसे धर्मात्मा न्यायाधीश राजा पुण्यात्माओं में प्रेम धारण करता है, वैसे शमदमादि युक्त श्रोताओं में प्रीति को विधान करें ॥१॥
विषय
उदयशील सूर्यवत् नाना प्रद गुरु अग्नि । उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( जारः ) रात्रि को जीर्ण कर देने वाला सूर्य जिस प्रकार ( उषसाम् उपस्थात् ) प्रभात वेलाओं के बीच में प्रकट होकर (अबोधि) सबको प्रबुद्ध करता, ( उभयस्य जन्तोः ) दोपाये, चौपाये दोनों को ( केतुम् ) प्रकाश वा चेतना देता है, उसी प्रकार ( उषसाम् उपस्थात् ) हृदय से चाहने वाले शिष्यों वा प्रजाओं के बीच ( जारः ) उत्तम उपदेश करने हारा पुरुष (अबोधि) अन्यों को ज्ञान से बोधित करे । वह ( होता ) उत्तम ज्ञान का देने वाला ( मन्द्रः ) उत्तम हर्षजनक, ( कवि-तमः ) श्रेष्ठ विद्वान्, (पावकः ) शोधक अग्नि के समान सबको पवित्र करने वाला होता है । वह ( उभयस्य जन्तोः ) ज्ञानी अज्ञानी दोनों प्रकार के, वा पशु व मनुष्य, दोनों वा इहलोक वा परलोक को जाने वाले दोनों प्रकार के ( जन्तोः ) प्राणियों को ( केतुम् ) ज्ञान का प्रकाश ( दधाति ) प्रदान करता है । वह ( देवेषु ) विद्वानों और ज्ञान की कामना करने वालों और ( सुकृत्सु ) उच्च आचारवान् सुकर्मा पुरुषों में ( हव्या ) ग्रहण करने योग्य अन्न, वचनादि तथा ( द्रविणं ) धन भी ( दुधाति ) प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ त्रिष्टुप् । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३ भुरिक् पंक्ति: । ६ स्वराट् पंक्तिः ॥ षड़ृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
जार उषसाम् अबोधि
पदार्थ
[१] वह (जारः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाला प्रभु (उषसाम्) = [उष दाहे] वासनाओं को भस्म करनेवाले पुरुषों की (उपस्थात्) = उपासना से अबोधि जाना जाता है। प्रभु दर्शन उन्हीं को होता है जो अपनी वासनाओं को जीर्ण करने के लिये यत्नशील होते हैं। इनके समीप उठने-बैठने से सामान्य मनुष्य भी परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करता है। वे प्रभु (होता) = सब कुछ देनेवाले हैं, (मन्द्रः) = आनन्दमय हैं, (कवितयः) = अत्यन्त क्रान्तप्रज्ञ हैं (पावकः) = पवित्र करनेवाले हैं। [२] ये प्रभु (उभयस्य जन्तोः) = दोनों प्रकार के प्राणियों, पशु-पक्षियों व मनुष्यों के (केतुम्) = ज्ञान को (दधाति) = स्थापित करते हैं। पशुओं में भी कुछ वासना के रूप में ज्ञान की स्थापना होती है। मनुष्यों को प्रभु बुद्धि [Intelligence] देते हैं। ये प्रभु ही (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (हव्या) = हव्य पदार्थों को तथा (सुकृत्सु) = पुण्यशालियों में (द्रविणम्) = धन को धारण करते हैं। देववृत्ति के व्यक्ति सदा हव्य पदार्थों को ही ग्रहण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु वासनाशून्य हृदयों में प्रकाशित होते हैं। ये प्राज्ञ प्रभु ही हमें पवित्र बनाते सभी को ये ही ज्ञान देते हैं। हव्यों व द्रविणों को प्राप्त कराते हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टान्ताने विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य रात्रीचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करतो तसे विद्वान अविद्येचे निवारण करून विद्या प्रकट करतात. जसे धर्मात्मा न्यायाधीश राजा पुण्यात्म्यांमध्ये प्रेम उत्पन्न करतो तसे शम, दम इत्यादीयुक्त श्रोत्यांमध्ये प्रेम उत्पन्न करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
See, the holy fire of morning sun is risen from the lap of early dawn, the sun having stolen away the darkness of night. It is the morning yajaka, delightful, and the most poetic symbol of divinity. It radiates light to reveal the identify of both coming and going living forms, carries our oblations to the elements and bestows wealth upon the noble performers.
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