ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
आ वा॑यो भूष शुचिपा॒ उप॑ नः स॒हस्रं॑ ते नि॒युतो॑ विश्ववार । उपो॑ ते॒ अन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒यो॒ इति॑ । भू॒ष॒ । शु॒चि॒ऽपाः॒ । उप॑ । नः॒ । स॒हस्र॑म् । ते॒ । नि॒ऽयुतः॑ । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । उपो॒ इति॑ । ते॒ । अन्धः॑ । मद्य॑म् । अ॒या॒मि॒ । यस्य॑ । दे॒व॒ । द॒धि॒षे । पू॒र्व॒ऽपेय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वायो भूष शुचिपा उप नः सहस्रं ते नियुतो विश्ववार । उपो ते अन्धो मद्यमयामि यस्य देव दधिषे पूर्वपेयम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वायो इति । भूष । शुचिऽपाः । उप । नः । सहस्रम् । ते । निऽयुतः । विश्वऽवार । उपो इति । ते । अन्धः । मद्यम् । अयामि । यस्य । देव । दधिषे । पूर्वऽपेयम् ॥ ७.९२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 92; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमरसपानार्थं कर्मयोगिनो यज्ञेष्वाह्वानमुपदिश्यते।
पदार्थः
(वायो) हे कर्मयोगिन् ! भगवन् अस्मद्यज्ञं (आ, भूष) आगत्य भूषयतु (शुचिपाः) शुचिपदार्थस्य पातास्ति, (विश्ववार) हे लोकभजनीय ! (ते) तव (सहस्रम्, नियुतः) अनेकधा कर्मप्रकाराः सन्ति (नः) अस्माकम् (अन्धः) अन्नादिकैः (मद्यम्) आह्लादनीयं सोमरसं (उप, अयामि) पात्रे निदधामि (देव) हे दिव्यशक्तिमन् ! (पूर्वपेयम्) भवतैव पूर्वपेयमिमं रसं (दधिषे) गृह्णातु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब कर्मयोगी पुरुष को सोमरस पीने के लिये बुलाना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वायो) हे कर्मयोगिन् “वाति=गच्छति स्वकर्मणाभिप्रेतं प्राप्नोतीति वायुः” जो कर्मों द्वारा अपने कर्तव्यों को प्राप्त हो, उसको वायु कहते हैं। “वायुर्वातेर्वेतेर्वा स्याद्गतिकर्मणः” वायु शब्द गतिकर्मवाली धातुओं से सिद्ध होता है (निरुक्त, दैवतकाण्ड १०–३)। इस प्रकार यहाँ वायु नाम कर्मयोगी का है। हे कर्मयोगिन् ! आप आकर हमारे यज्ञ को (आभूष) विभूषित कीजिये और (शुचिपाः) आप पवित्र वस्तुओं का पान करनेवाले हैं। (विश्ववारः) आप सबके वरणीय हैं, (ते) तुम्हारे (सहस्रं नियुतः) हजारों कर्म के प्रकार हैं, (नः) हमारा (अन्धः) अन्नादि वस्तुओं से (मद्यम्) आह्लादक जो सोमरस है, उसको (उप अयामि) मैं पात्र में रखता हूँ, (देव) हे दिव्यशक्तिवाले विद्वन् ! (पूर्वपेयं) पहिले पीने योग्य इसको (दधिषे) तुम धारण करो ॥१॥
भावार्थ
यजमान लोग अपने यज्ञों में कर्मयोगी पुरुषों को बुलाकर उत्तमोत्तम अन्नादि पदार्थों के आह्लादक रस उनकी भेंट करके उनसे सदुपदेश ग्रहण करें। वायु शब्द से इस मन्त्र में कर्मयोगी का ग्रहण है, किसी वायुतत्त्व या किसी अन्य वस्तु का नहीं। यद्यपि वायु शब्द के अर्थ कहीं ईश्वर के कहीं वायुतत्त्व के भी हैं, तथापि यहाँ प्रसङ्ग से वायु शब्द कर्मयोगी का बोधक है, क्योंकि इसके उत्तर मन्त्र में “शचीभिः” इत्यादिक कर्मबोधक वाक्यों से कर्मप्रधान पुरुष का ही ग्रहण है और यहाँ “वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरं कृताः” ॥१।२।१॥ इत्यादि मन्त्रों में वायु शब्द से ईश्वर का ग्रहण किया है, वहाँ ईश्वर का प्रसङ्ग है, पूर्वोक्त सूक्तों की सङ्गति से वायु शब्द ईश्वर का प्रतिपादक है अर्थात् “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्” ॥१।१।१॥ इस ईश्वरप्रकरण में पढ़े जाने के कारण वहाँ वायु शब्द ईश्वर का बोधक है, क्योंकि “शन्नो मित्रः शं वरुणः” ॥तैत्तिरीय ब्रा. १ ॥ इस मन्त्र में वायु शब्द ईश्वर के प्रकरण में पढ़ा गया है। जिस प्रकार वहाँ ईश्वरप्रकरण है, इसी प्रकार यहाँ विद्वानों से शिक्षालाभ करने के प्रकरण में पढ़े जाने के कारण वायु शब्द विद्वान् का बोधक है, किसी अन्य वस्तु का नहीं ॥१॥
विषय
वायुवत्, विवेकी विद्वान् निर्णायक के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (शुचिपाः) 'शुचि' अर्थात् शुद्ध चरित्रवन् ! निष्पाप, निर्दोष, निरपराध, ईमानदार की रक्षा करने वाले ! हे (वायो) तुष और अन्नों को पृथक् २ करनेवाले वायु के समान सत्य और असत्य का विवेक करने हारे विद्वन् ! तू ( नः उप आ भूष ) हमें सदा प्राप्त हों, हमें सुशोभित कर । हे (विश्व-वार) सब से वरण करने योग्य ! सब पापों के वारक ! ( ते सहस्रं नियुतः ) तेरे अधीन सहस्रों नियुक्त आज्ञा पालक हैं । हे ( देव ) विद्वन् ! तू ( यस्य पूर्वपेयं ) जिसके पूर्व पालन करने योग्य अंश को ( दधिषे ) धारण करता है मैं उसी ( मद्यम् ) तृप्तिकारक, हर्षजनक ( अन्धः ) उत्तम अन्न को ( ते उपो अयामि ) तेरे लिये प्राप्त कराऊं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, ३—५ वायुः । २ इन्द्रवायू देवते । छन्दः —१ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५ आर्षी त्रिष्टुप् ॥
विषय
सत्यासत्य विवेकी विद्वान्
पदार्थ
पदार्थ- हे (शुचिपा:) = शुद्ध चरित्रवन् ! धार्मिक की रक्षा करनेवाले! हे (वायो) = तुष से अन्नों पृथक् करनेवाले वायु के समान सत्य, असत्य के विवेक वाले विद्वन्! तू (नः उप आ भूष) = हमें प्राप्त हो । हे (विश्व-वार) = वरण योग्य ! पापों के वारक! (ते सहस्त्रं नियुतः) = तेरे अधीन सहस्त्रों आज्ञा पालक हैं। हे (देव) = विद्वन् ! तू (यस्य पूर्वपेयं) = जिसके पूर्व पालन वा भोग योग्य अंश को (दधिषे) = धारण करता है, मैं उसी (मद्यम्) = तृतिकारक, हर्षजनक (अन्धः) = अन्न को (ते उतो अयामि) = तेरे लिये प्राप्त कराऊँ।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्यों को योग्य है कि वे शुद्ध चरित्रवाले सत्य-असत्य के विवेकी विद्वानों की शरण में जाकर उनके अधीन रहकर उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्त करें तथा पाप रहित होकर पुरुषार्थ पूर्वक अन्न-धन का संचय करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
1. Vayu, lord of inspiration, motivation, action and achievement, lover and protector of truth and purity, commanding love, reverence and choice of the world, come and grace our house of yajnic action where your supportive devotees await in thousands. I bring you inspiring food for presentation which you, O lord divine, you regard as your first priority and which, pray, please to accept.
मराठी (1)
भावार्थ
यजमानांनी आपल्या यज्ञात कर्मयोगी पुरुषांना आमंत्रित करून त्यांना उत्तमोत्तम अन्न इत्यादी पदार्थांचा आल्हाददायक रस देऊन त्यांच्याकडून सदुपदेश ग्रहण करावा. वायू या शब्दाने या मंत्रात कर्मयोग्याचे ग्रहण होते. एखाद्या वायुतत्त्व किंवा इतर वस्तूचे नाही. जरी वायू शब्दाचा अर्थ कुठे ईश्वर, तर कुठे वायुतत्त्व ही आहे. येथे वायू शब्द कर्मयोगी असा प्रासंगिक बोधन आहे. कारण याच्या उत्तर मंत्रात ‘शचीभि’ इत्यादी कर्मबोधक वाक्यांनी कर्मप्रधान पुरुषाचेच ग्रहण होते व जेथे ‘वायवा याहि दर्शते इमे सोमा अरं कृता’ ॥१।२।१॥ तेथे ईश्वराचा प्रसंग पूर्वोक्त सूक्ताच्या संगतीने वायू शब्द ईश्वराचा प्रतिपादक आहे. अर्थात, ‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ॥१।१॥११॥ या ईश्वर प्रकरणातील वायू शब्द ईश्वरबोधक आहे. कारण ‘शन्नो मित्र: शं वरुण:’ । तैत्तिरीय ब्रा. १ ॥ या मंत्रात वायू शब्द ईश्वर प्रकरण संबंधित आहे. ज्या प्रकारे तेथे ईश्वर प्रकरण आहे त्या प्रकारे येथे विद्वानांकडून शिक्षण घेण्याच्या प्रकरणात वायू शब्द विद्वानाचा बोधक आहे. दुसऱ्या कोणत्या वस्तूचा नाही. ॥१॥
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