ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
इ॒यं वा॑म॒स्य मन्म॑न॒ इन्द्रा॑ग्नी पू॒र्व्यस्तु॑तिः । अ॒भ्राद्वृ॒ष्टिरि॑वाजनि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वा॒म॒स्य । मन्म॑नः । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । पू॒र्व्यऽस्तु॑तिः । अ॒भ्रात् । वृ॒ष्टिःऽइ॑व । अ॒ज॒नि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वामस्य मन्मन इन्द्राग्नी पूर्व्यस्तुतिः । अभ्राद्वृष्टिरिवाजनि ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वामस्य । मन्मनः । इन्द्राग्नी इति । पूर्व्यऽस्तुतिः । अभ्रात् । वृष्टिःऽइव । अजनि ॥ ७.९४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 94; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सद्गुणान् ग्रहीतुं यज्ञेषु कर्मयोग्यादीना-माह्वानमुपदिश्यते।
पदार्थः
(इन्द्राग्नी) हे कर्मयोगिन् ज्ञानयोगिंश्च विद्वांसौ ! (वाम्) युवयोः (इयम्) क्रियमाणा (पूर्व्यस्तुतिः) मुख्यस्तुतिः (अभ्रात्) मेघमण्डलात् (वृष्टिः, इव) वर्षणमिव (अजनि) सद्भावमुत्पदायति (अस्य, मन्मनः) अस्य स्तुतिकर्तुर्हृदयमपि शोधयति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सद्गुणों के ग्रहण के लिये कर्म्मयोगी तथा ज्ञानयोगियों का यज्ञ में आह्वान कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्राग्नी) हे कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी विद्वानों ! (वां) आपकी (इयं) यह (पूर्व्यस्तुतिः) मुख्यस्तुति (अभ्रात्) मेघमण्डल से (वृष्टिः, इव) वृष्टि के समान (अजनि) सद्भावों को उत्पन्न करती है, (अस्य) इस (मन्मनः) स्तोता के हृदय को भी शुद्ध करती है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि जो लोग अपने विद्वानों के सद्गुणों को वर्णन करते हैं, वे मानों सद्गुणकीर्तनरूप वृष्टि से अङ्कुरों के समान प्रादुर्भाव को प्राप्त होते हैं ॥ तात्पर्य्य यह है कि जब जिज्ञासु लोगों की वृत्ति विद्वानों के सद्गुणों की ओर लगती है, तब वे स्वयं भी सद्भावसम्पन्न होते हैं और प्रजा में भी सद्भावों की वृष्टि करते हैं, इसलिये प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह विद्वानों के गुणों का कीर्तन करे ॥१॥
विषय
इन्द्र-अग्नि, विद्वान् गुरु शिष्यों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र, ऐश्वर्यवन् ! हे ( अग्ने ) अंग में झुकने हारे, विनयशील शिष्य जनो ! ( इयं ) यह ( पूर्व्य-स्तुतिः ) पूर्व पुरुषों से प्राप्त उत्तम ज्ञानोपदेश ( अस्य मन्मनः ) इस ज्ञानवान् पुरुष का ( वाम् ) आप दोनों के प्रति ( अभ्रात् वृष्टिः इव ) मेघ से वृष्टि के समान ( अजनि ) प्रकट हुआ करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः—१, ३, ८, १० आर्षी निचृद् गायत्री । २, ४, ५, ६, ७, ९ , ११ आर्षी गायत्री । १२ आर्षी निचृदनुष्टुप् ॥ द्वादर्शं सूक्तम्॥
विषय
विनयशील शिष्य
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्राणी) = इन्द्र, ऐश्वर्यवन्! हे (अग्ने) = अंग में झुकने हारे, विनयशील शिष्य जन ! (इयं) = यह (पूर्व्य-स्तुतिः) = पूर्व पुरुषों से प्राप्त ज्ञानोपदेश (अस्य मन्मनः) = इस ज्ञानी पुरुष का (वाम्) = आप दोनों के प्रति (अभ्रात् वृष्टिः इव) = मेघ से वृष्टि तुल्य (अजनि) प्रकट हो ।
भावार्थ
भावार्थ-शिष्य गण विनयशीलता व जिज्ञासु भाव से विद्वान् आचार्यों के सान्निध्य में रहकर इनके ज्ञानोपदेश का श्रवण करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Agni, lords of action and enlighten ment, this principal and ancient song of adoration for you from the celebrant flows spontaneously like rain from the cloud.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की जे लोक आपल्या विद्वानांच्या सद्गुणांचे वर्णन करतात,ते जणू सद्गुणकीर्तनरूपी वृष्टीने अंकुराप्रमाणे उगवतात.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की जेव्हा जिज्ञासू लोकांची वृत्ती विद्वानांच्या सद्गुणांकडे वळते. तेव्हा तेही सद्भावसंपन्न बनतात व प्रजेत ही सद्भावांची वृष्टी करतात. त्यासाठी प्रत्येक माणसाचे हे कर्तव्य आहे, की त्यांनी विद्वानांच्या गुणांचे कीर्तन करावे. ॥१॥
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