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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सरस्वती छन्दः - पादनिचृतत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र क्षोद॑सा॒ धाय॑सा सस्र ए॒षा सर॑स्वती ध॒रुण॒माय॑सी॒ पूः । प्र॒बाब॑धाना र॒थ्ये॑व याति॒ विश्वा॑ अ॒पो म॑हि॒ना सिन्धु॑र॒न्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । क्षोद॑सा । धाय॑सा । स॒स्रे॒ । ए॒षा । सर॑स्वती । ध॒रुण॑म् । आय॑सी । पूः । प्र॒ऽबाब॑धाना । र॒थ्या॑ऽइव । या॒ति॒ । विश्वाः॑ । अ॒पः । म॒हि॒ना । सिन्धुः॑ । अ॒न्याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र क्षोदसा धायसा सस्र एषा सरस्वती धरुणमायसी पूः । प्रबाबधाना रथ्येव याति विश्वा अपो महिना सिन्धुरन्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । क्षोदसा । धायसा । सस्रे । एषा । सरस्वती । धरुणम् । आयसी । पूः । प्रऽबाबधाना । रथ्याऽइव । याति । विश्वाः । अपः । महिना । सिन्धुः । अन्याः ॥ ७.९५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सरस्वतीपदवाच्याया ब्रह्मविद्याया गुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    (सरस्वती) सरस्वती विद्या (धरुणम्) अखिलज्ञानाधारास्ति (आयसी) लोहमिव दृढा चास्ति (पूः) अभ्युदये च नगरीव (प्र, क्षोदसा) अज्ञाननाशकेन (धायसा) वेगेन (सस्रे) सततप्रवाहेण संसारं सिञ्चतीव (एषा) इयं ब्रह्मविद्यात्मिका (प्र, बाबधाना) अत्यन्तवेगेन (रथ्या, इव) नदीव (याति) गच्छति तथा (महिना) स्वमहिम्ना (सिन्धुः) स्यन्दमाना (विश्वा, अपः) सर्वजलानां नेत्री (अन्याः) इतरास्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रसङ्गसङ्गति से सरस्वती देवी विद्या को वर्णन करते हैं, जिसकी प्राप्ति से पुरुष कर्मयोगी और ज्ञानयोगी बनते हैं।

    पदार्थ

    (सरस्वती) यह निघण्टु २।२३।५७ में वाणी के नामों में पढ़ा है, इसलिए सरस्वती यहाँ विद्या का नाम है। व्युत्पत्ति इसकी इस प्रकार है, “सरो ज्ञानं विद्यतेस्या असौ सरस्वती” जो ज्ञानवाली हो, उसका नाम सरस्वती है। सरस्वती विद्या (धरुणम्) सब ज्ञानों का आधार है (आयसी) ऐसी दृढ़ है कि मानों लोहे की बनी हुई है, (पूः) सब प्रकार के अभ्युदयों के लिए एक पुरी के सदृश है, (प्र, क्षोदसा) अज्ञानों के नाश करनेवाले (धायसा) वेग से (सस्रे) अनवरत प्रवाह से संसार को सिञ्चन कर रही है, (एषा) यह ब्रह्मविद्यारूप (प्र, बाबधाना) अत्यन्त वेग से (रथ्या, इव) नदी के समान (याति) गमन करती और (महिना) अपने महत्त्व से (सिन्धुः) स्यन्दन करती हुई (विश्वा, अपः) सब जलों को ले जानेवाली (अन्याः) और है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! ब्रह्मविद्यारूपी नदी सब प्रकार के अज्ञानादि पाप-पङ्कों को बहा ले जाती है और यही नदी भुवनत्रय को पवित्र करती अर्थात् अन्य जो भौतिक नदियें हैं, वे किसी एक प्रदेश को पवित्र करती हैं और यह सबको पवित्र करनेवाली है, इसलिए इसकी उनसे विलक्षणता है। तात्पर्य यह है कि यह विद्यारूपी नदी आध्यात्मिक पवित्रता का संचार और भौतिक नदी बाह्य पवित्रता का संचार करती है। कई एक टीकाकारों ने सरस्वती शब्द के वास्तविक अर्थ को न समझ कर यहाँ भौतिक नदी के अर्थ किये हैं। उन्होंने अत्यन्त भूल की है, जो निघण्टु में ५७ प्रकार के वाणी के अर्थों में रहते हुए भी सरस्वती शब्द को एक जल-नदी के अर्थों में लगा दिया। इस प्रकार की भारी भूलों के भर जाने से ही वेदार्थ कलङ्कित हो रहा है। अस्तु, सरस्वती शब्द से यहाँ ब्रह्मविद्यारूपी ग्रहण है। मालूम होता है कि वेद के ऐसे गूढ़ स्थलों को न समझने से ही भारतवर्ष में नदियों की पूजा होने लग गयी ॥१॥

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    विषय

    सरस्वती । नदीवत् पत्नी या स्त्री के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    पत्नी या स्त्री के कर्त्तव्य—जिस प्रकार (सिन्धुः ) बहने वाली नदी ( क्षोदसा सस्त्रे ) पानी से बहती है, ( आयसीः पूः ) लोहे के बने प्रकोट के समान नगर की रक्षा करती, ( रथ्या इव ) रथ में लगे अश्वों के समान ( प्र बाबधाना ) मार्ग में आये वृक्षलतादि को उखाड़ती हुई, ( अन्याः अपः च प्रबाबधाना ) अन्य सब जल-धाराओं को बांधती हुई सब से मुख्य होकर ( याति ) आगे बढ़ती है उसी प्रकार ( सरस्वती ) उत्तम ज्ञानयुक्त विदुषी स्त्री ( धायसा ) पुष्टिकारक बालक को पिलाने योग्य दूध ( क्षोदसा ) और अन्न से ( प्रसस्त्रे ) प्रेम से प्रवाहित होती है । वह (धरुणम् ) गृहस्थ को धारण करने वाली और सबका आश्रय हो, वह ( आयसी पूः ) लोहे के प्रकोट के समान, दृढ़ एवं ( आ-यसी ) सब प्रकार से परिश्रम करने वाली और ( पू: ) प्रवचनों और परिवार के पालन करने वाली हो । वह (रथ्या इव ) रथ में लगने योग्य अश्वों के समान दृढ़ होकर और वह ( महिना ) अपने सामर्थ्य से ( विश्वाः अन्याः अपः ) अन्य आप्त जनों को ( सिन्धुः ) समुद्र या महानद के समान ( प्र बाबधाना ) दृढ़ सम्बन्ध से बांधती हुई ( याति ) संसार-मार्ग पर चले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, २, ४–६ सरस्वती । ३ सरस्वान् देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्त्री के कर्त्तव्य - १

    पदार्थ

    पदार्थ- पत्नी, स्त्री के कर्त्तव्य-जैसे (सिन्धुः) = बहनेवाली नदी (क्षोदसा सस्त्रे) = पानी से बहती है, (यायसी: पू:) = लोहे के प्रकोट के तुल्य नगर की रक्षा करती, (रथ्या इव) = रथ में लगे अश्वों के तुल्य (प्रबाबधाना) = मार्ग के वृक्ष, लतादि को उखाड़ती हुई, (अन्याः अपः च प्रबाबधाना) = अन्य सब जल धाराओं को बाँधती हुई, मुख्य होकर (याति) = आगे बढ़ती है वैसे ही सरस्वती ज्ञानयुक्त विदुषी की (धायसा) = बालक को पिलाने योग्य दूध क्षोदसा और अन्न से प्रसस्त्रे प्रेम से प्रवाहित होती है। वह (धरुणम्) = गृहस्थ धारक और सबका आश्रय हो, वह (आयसी पू:) = लोहे के प्रकोट के तुल्य दृढ़ एवं (आ-यसी) = सब प्रकार से श्रमवाली और (पू:) = परिवार की पालक हो। वह (रथ्या इव) =रथ में लगे अश्वों के तुल्य दृढ़ और (महिना) = स्व सामर्थ्य से (विश्वाः अन्याः अपः) = अन्य आप्त जनों को (सिन्धुः) = महानद के समान (प्र बाबधाना) = दृढ़ सम्बन्ध से बाँधती हुई (याति) = जीवन - मार्ग पर चले ।

    भावार्थ

    भावार्थ- विदुषी स्त्री परिवार में सबको प्रेम के व्यवहार से जोड़कर रखे, पूर्ण परिश्रम करनेवाली हो, परिवार के पालन-पोषण की सुव्यवस्था करे तथा बड़े-बड़े विद्वानों से प्रेरणा पाकर जीवन को सन्मार्ग पर चलावे ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Sarasvati, perennial stream of living waters and dynamic knowledge, is a treasure fortress of gold that holds all wealth of the world of knowledge. It is a constantly running stream that flows with waters, ever rushing and ever refreshing, towards the infinite ocean of omniscience wherefrom it arises and where it terminates. It goes on and on like a chariot on course in race, collecting and comprehending all other streams of world knowledge by virtue of its all inclusive majesty of character.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे माणसांनो! ब्रह्मविद्यारूपी नदी सर्व प्रकारच्या अज्ञान इत्यादी पापकांना वाहून नेते व हीच नदी भुवनत्रयांना पवित्र करते. अर्थात्, इतर भौतिक नद्या एखाद्या प्रदेशाला पवित्र करतात परंतु ही सर्वांना पवित्र करणारी आहे. त्यामुळे ती सर्वांपेक्षा विलक्षण आहे. तात्पर्य हे, की ही विद्यारूपी नदी आध्यात्मिक पवित्रतेचा संचार करते व भौतिक नदी बाह्य पवित्रतेचा संचार करते.

    टिप्पणी

    कित्येक टीकाकारांनी सरस्वती शब्दाचा वास्तविक अर्थ न समजता येथे भौतिक नदी असा केलेला आहे. ती त्यांची अत्यंत चूक आहे. निघण्टुमध्ये ५७ प्रकारची वाणी असा सरस्वतीचा अर्थ असून ही, एक जलनदी असा अर्थ लावला गेला. अशा प्रकारच्या चुकांनीच वेदांचे अर्थ कलंकित केलेले आहेत. सरस्वतीचा अर्थ येथे ब्रह्मविद्यारूपी नदी असा आहे. वेदातील गूढ स्थळांना न समजता भारतवर्षात नद्यांची पूजा केली जाते. ॥१॥

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