ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
प॒रो मात्र॑या त॒न्वा॑ वृधान॒ न ते॑ महि॒त्वमन्व॑श्नुवन्ति । उ॒भे ते॑ विद्म॒ रज॑सी पृथि॒व्या विष्णो॑ देव॒ त्वं प॑र॒मस्य॑ वित्से ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रः । मात्र॑या । त॒न्वा॑ । वृ॒धा॒न॒ । न । ते॒ । म॒हि॒ऽत्वम् । अनु॑ । अ॒श्नु॒व॒न्ति॒ । उ॒भे इति॑ । ते॒ । वि॒द्म॒ । रज॑सी॒ इति॑ । पृ॒थि॒व्याः । विष्णो॒ इति॑ । दे॒व॒ । त्वम् । प॒र॒मस्य॑ । वि॒त्से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परो मात्रया तन्वा वृधान न ते महित्वमन्वश्नुवन्ति । उभे ते विद्म रजसी पृथिव्या विष्णो देव त्वं परमस्य वित्से ॥
स्वर रहित पद पाठपरः । मात्रया । तन्वा । वृधान । न । ते । महिऽत्वम् । अनु । अश्नुवन्ति । उभे इति । ते । विद्म । रजसी इति । पृथिव्याः । विष्णो इति । देव । त्वम् । परमस्य । वित्से ॥ ७.९९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मात्रया) प्रकृत्या पञ्चतन्मात्ररूपेण (तन्वा) शरीरेण (वृधानः) वृद्धिं प्राप्तं (ते) तव (महित्वम्) महिमानं (विष्णो) हे विभो ! (न) नैव (अश्नुवन्ति) प्राप्नुवन्ति, हे विभो ! (ते) तव (उभे) उभावपि लोकौ (विद्म) जानीमः यौ (पृथिव्याः) पृथिवीतः (रजसी) अन्तरिक्षपर्यन्तौ स्तः (देव) हे दिव्यशक्तिमन् ! (त्वम्) त्वमेव (अस्य) अस्य ब्रह्माण्डस्य (परम्) पारं (वित्से) जानासि नान्यः, यतः (परः) सर्वस्मात्परोऽसि ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मात्रया) प्रकृति के पञ्चतन्मात्रारूप (तन्वा) शरीर से (वृधानः) वृद्धि को प्राप्त (ते) तुम्हारी (महित्वम्) महिमा को हे (विष्णो) विभो ! (न) नहीं (अश्नुवन्ति) प्राप्त कर सकते। हे व्यापक परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (उभे) दोनों लोकों को हम (विद्म) जानते हैं, जो (पृथिव्याः) पृथिवी से लेकर (रजसी) अन्तरिक्ष तक हैं, जो (देव) दिव्य शक्तिमन् परमात्मन् ! (त्वं) तुम ही (अस्य) इस ब्रह्माण्ड के (परं) पार को (वित्से) जानते हो, अन्य नहीं ॥१॥
भावार्थ
जीव केवल प्रत्यक्ष से लोकों को जान सकता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का ज्ञाता एकमात्र परमात्मा है। तन्मात्रा कथन करना यहाँ प्रकृति के सूक्ष्म कार्य्यों का उपलक्षणमात्र है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति उसके शरीरस्थानी होकर उस परमात्मा के महत्त्व को बढ़ा रही है, या यों कहो कि प्रकृत्यादि सब पदार्थ उस परमात्मा के एकदेश में हैं और वह असीम अर्थात् अवधिरहित है ॥१॥
विषय
सर्वव्यापी प्रभु की महिमा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( वृधाना ) सब से बढ़े ! वा हे समस्त जगत् के बढ़ाने हारे ! हे ( विष्णो ) सर्वव्यापक ! ( तन्वां ) अति विस्तृत या जगत् को फैलाने वाले ( मात्रया ) समस्त जगत् की बनाने वाली प्रकृति से भी ( परः ) उत्कृष्ट ( ते ) तेरे ( महित्वम् ) महिमा को कोई भी ( न अनु अश्नुवन्ति ) पा नहीं सकते, नहीं पहुंच सकते । हे (देव) सर्वप्रकाशक ! ( पृथिव्याः ते ) समस्त संसार को विस्तारित करने वाले तेरे ही बनाये इन ( उभे ) दोनों ( रजसी ) सूर्य पृथिवी वा आकाश और भूमि दोनों लोकों को ( विद्म ) जानते हैं। और तू ( अस्य ) इस से भी ( परम् ) उत्कृष्ट तत्व को ( वित्से ) प्राप्त है और जानता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १—३, ७ विष्णुः। ४—६ इन्द्राविष्णु देवते॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
ईश्वर की महिमा अपरम्पार है
पदार्थ
पदार्थ- हे (वृधाना) = सबसे बढ़े ! वा जगत् के बढ़ाने हारे! (विष्णो) = सर्वव्यापक ! (तन्वा) = जगत् को फैलानेवाले, (मात्रया) = जगत् को बनानेवाली प्रकृति से भी (परः) = उत्कृष्ट (ते) = तेरी (महित्वम्) = महिमा को कोई भी (न अनु अश्नुवन्ति) = पा नहीं सकते। हे (देव) = सर्वप्रकाशक ! (पृथिव्याः ते) = संसार के विस्तारक तेरे ही बनाये इन (उभे) = दोनों (रजसी) = सूर्य, पृथिवी, वा आकाश और भूमि लोकों को (विद्म) = जानते हैं। तू (अस्य) = इससे भी (परम्) = उत्कृष्ट तत्त्व को (वित्वे) = जानता है।
भावार्थ
भावार्थ- सर्वव्यापक परमेश्वर इस समस्त जगत् को फैलाता है, सबको प्रकाशित करता है, सूर्य, भूमि व आकाश आदि लोकों को बनाता और समस्त पदार्थों को जानता है। वह प्रभु जड़ प्रकृति से उत्कृष्ट है। उसकी महिमा का कोई भी पार नहीं पा सकता।
इंग्लिश (1)
Meaning
Vishnu, omnipresent lord supreme, manifesting by the expansive world forms of mother nature, no one comprehends your greatness and majesty. We apprehend both your worlds from earth to heaven but, O lord self- refulgent, you know and are the ultimate beyond these too. (You are immanent and transcendent.)
मराठी (1)
भावार्थ
जीव केवळ प्रत्यक्ष गोलांना (लोकांना) जाणू शकतो. संपूर्ण ब्रह्मांडाचा ज्ञाता एक परमेश्वर आहे. तन्मात्रा कथन करणे येथे प्रकृतीच्या सूक्ष्म कार्यांचे उपलक्षण मात्र आहे.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की प्रकृती त्याच्या शरीरस्थानी असून, त्या परमेश्वराचे महत्त्व वाढवीत आहे. असेही म्हणता येईल, की प्रकृती इत्यादी सर्व पदार्थ त्या परमात्म्याच्या एक देशी आहेत. तो असीम अर्थात अवधिरहित आहे. ॥१॥
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