ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रगाथो घौरः काण्वो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - उपरिष्टाद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत । इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥
स्वर सहित पद पाठमा । चि॒त् । अ॒न्यत् । वि । शं॒स॒त॒ । सखा॑यः । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ । इन्द्र॑म् । इत् । स्तो॒त॒ । वृष॑णम् । सच॑ । सु॒ते । मुहुः॑ । उ॒क्था । च॒ । शं॒स॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत । इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥
स्वर रहित पद पाठमा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखायः । मा । रिषण्यत । इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सच । सुते । मुहुः । उक्था । च । शंसत ॥ ८.१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ अनात्मोपासना निषिध्यते।
पदार्थः
(सखायः) हे सर्वेषां मित्रभूता उपासकाः (अन्यत्, मा, चित्, वि, शंसत) परमात्मनोऽन्यं न स्तुत (मा, रिषण्यत) आत्मानं मा हिंसिष्ट (वृषणं) सर्वकामप्रदं (इन्द्रं, इत्) सर्वैश्वर्य्यं परमात्मानमेव (स्तोत) स्तुत (सचा) सङ्घीभूय (सुते) साक्षात्कृते सति (मुहुः) अनेकशः (उक्था, च, शंसत) तत्सम्बन्धि स्तोत्राणि कथयत च ॥१॥
विषयः
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पदार्थः
हे सखायः=सुहृदः “समानख्यानास्तुल्यख्यातयः समप्रसिद्धयः । विद्यया धनेन रूपेण वयसा च ये तुल्यास्ते सखायो निगद्यन्ते । ” इन्द्रस्य स्तोत्रं विहाय अन्यत् स्तोत्रम् । मा चित्=न कदापि । शंसत=नैव विरचयत । तादृशस्तुतिकरणेन मा रिषण्यत=मा हिंसिता भूत । अज्ञानेन लोभेन वा अन्येषां जडवस्तूनाम् उन्मत्तप्रमत्तनृपतिप्रभृतीनां च स्तोत्रविरचनेन स्वकीयमात्मानं न पातयत । यद्वा । मा रिषण्यत=हिंसितारो मा भूत । अन्योपासका हिंसका भवन्ति । सर्वप्रदः परमात्मैवास्तीत्यग्रे विशदयति हे सखायः ! वृषणं=निखिलकामानां वर्षितारं=प्रदातारम् । इन्द्रमित्=परमात्मानमेव । स्तोत=स्तवनेन प्रसादयत । सुते=ज्ञानात्मके द्रव्यात्मके वा यज्ञे । सचा=संगत्य । मुहुः=पुनः पुनः । इन्द्रस्य उक्था च=उक्थानि च=वक्त्तव्यानि च स्तोत्राणि । शंसत=विरचय्य उच्चारयत ॥१ ॥
हिन्दी (5)
विषय
अब परमात्मा से भिन्न की उपासना का निषेध कथन-करते हैं।
पदार्थ
(सखायः) हे सबका हित चाहनेवाले उपासक लोगो ! (अन्यत्, मा, चित्, विशंसत) परमात्मा से अन्य की उपासना न करो (मा, रिषण्यत) आत्महिंसक मत बनो (वृषणं) सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले (इन्द्रं, इत्) परमैश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मा की ही (स्तोत) स्तुति करो (सचा) सब एकत्रित होकर (सुते) साक्षात्कार करने पर (मुहुः) बार-बार (उक्था, च, शंसत) परमात्मगुणकीर्तन करनेवाले स्तोत्रों का गान करो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि हे उपासक लोगो ! तुम परमैश्वर्य्यसम्पन्न, सर्वरक्षक, सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले और सबके कल्याणकारक एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करो, किसी जड़ पदार्थ तथा किसी पुरुषविशेष की उपासना परमात्मा के स्थान में मत करो, सदा उसके साक्षात्कार करने का प्रयत्न करो और जिन आर्ष ग्रन्थों में परमात्मा का गुणवर्णन किया गया है अथवा जिन ग्रन्थों में उसके साक्षात्कार करने का विधान है, उन ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करते हुए मनन करो।उक्त मन्त्र में स्पष्टतया वर्णन किया है कि जो परमात्मा से भिन्न जड़ोपासक हैं, वे आत्महिंसक=अपनी आत्मा का हनन करनेवाले हैं और आत्मा का हनन करनेवाले सदा असद्गति को प्राप्त होते हैं, जैसा कि यजु० ४०।३ में भी वर्णन किया है किः− असुर्य्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥अर्थ−आत्महनः=आत्मा का हनन करनेवाले जनाः=जन मरने के पश्चात् असुरों के लोकों को प्राप्त होते हैं, जो अन्धतम से ढके हुए अर्थात् अन्धकारमय हैं। इस मन्त्र में “लोक” शब्द के अर्थ अवस्थाविशेष के हैं, लोकान्तर प्राप्ति के नहीं और इसी भाव को “अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते” यजु० ४०।९ में इस प्रकार वर्णन किया है कि जो अविद्या=विपरीत ज्ञान की उपासना करते हैं, वे अन्धतम को प्राप्त होते हैं, या यों कहो कि जो परमात्मा के स्थान में जड़ोपासना करते हैं, वे अपने इष्टफल को प्राप्त नहीं होते अर्थात् परमात्मा से अन्य की उपासना करनेवाले आत्महिंसक ऐहिक और पारलौकिक सुख से सदा वञ्चित रहते हैं, इसलिये उचित है कि सुख की कामनावाला पुरुष एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करे, क्योंकि परमात्मा सजातीय विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य है, इसलिये उसका सजातीय कोई पदार्थ नहीं, इसी कारण यहाँ अन्य उपासनाओं का निषेध करके परमात्मा की ही उपासना वर्णित की है ॥१॥
विषय
N/A
पदार्थ
(सखायः) हे सखायो ! हे सुहृद्गण ! ईश्वर के स्तोत्र छोड़कर (अन्यत्) अन्यान्य देवों का स्तोत्र (चित्) कदापि भी (मा*) न (विशंसत) करें । अन्य स्तुति करने से (मा+रिषण्यत) आप हिंसित न होवें । क्योंकि यदि अज्ञान अथवा लोभ से जड़ वस्तुओं की अथवा उन्मत्त प्रमत्त राजा आदिकों की स्तुति करेंगे, तो आप लोगों की महती हानि होगी । इस कारण केवल परमात्मा की ही स्तुति करें अथवा (मा+रिषण्यत) हिंसक न बनें, अन्यदेवतोपासक प्रायः हिंसक होते हैं । सर्वप्रद परमात्मा ही है, यह आगे दिखलाते हैं । आप (वृषणम्) निखिल कामनाओं के वर्षा करनेवाले (इन्द्रम्+इत्†) परमात्मा की ही (स्तोत) स्तुति करें । (च) और (सुते) ज्ञानात्मक अथवा द्रव्यात्मक यज्ञ में (सचा) सब कोई मिलकर (मुहुः) वारंवार परमात्मा के उद्देश से (उक्था) वक्तव्य स्तोत्र का (शंसत) उच्चारण करें ॥१ ॥
भावार्थ
महान् आत्मा ईश्वर को छोड़ के जो मूढ़ जड़ सूर्य्यादिकों की, मानवकल्पित विष्णुप्रभृतियों की और अवस्तु=प्रेत मृत पितृगण यक्ष गन्धर्व आदिकों की उपासना करते हैं, वे आत्महन् हो महान् अन्धकार में गिरते हैं, अतः सब छोड़ केवल ब्रह्म उपासनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।
टिप्पणी
* निषेधार्थक न शब्द प्रसिद्ध है, इसके अतिरिक्त मा, माकि, माकीम्, मो, नकि आदि शब्द भी निषेध में आते हैं । † इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से यास्काचार्य करते हैं यथा−इन्द्र हरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा । तद्यदेनं प्राणैः समैन्धंस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते । इदं करणादित्याग्रयणः । इदं दर्शनादित्यौपमन्यवः । इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इन्दञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वादरयिता च यज्वनाम् । निरुक्त दै० ४ । १ । ८ ॥अर्थ−१−(इराम्+दृणाति+इति+वा) इरा=अन्न । दॄ विदारणे । अन्न के उद्देश से जल की सिद्धि के लिये जो मेघ को विदीर्ण करता है, वह इन्द्र । २−(इराम्+ददाति+इति+वा) डुदाञ् दाने । वृष्टिनिष्पादन से जो अन्न देता है, वह इन्द्र । ३−(इराम्+दधाति+इति+वा) डुधाञ् धारणपोषणयोः । इरा=अन्न अर्थात् तृप्तिकारक सस्य को जो धारण करता अर्थात् जलप्रदान से जो पोषण करता है, वह इन्द्र । ४−(इराम्+दारयति+इति+वा) पृथिवी के ऊपर जो विविध प्रकार के अन्नों को स्थापित करता है, वह इन्द्र । ५−(इन्दवे+द्रवति+इति+वा) इन्दु=सोम=सकलपदार्थ । सकल वस्तुओं की रक्षा के लिये जो दौड़ता है, वह इन्द्र । ६−(इन्दौ+रमते+इति+वा) इन्दु=चन्द्रमा । जो चन्द्रमा में क्रीड़ा करता अर्थात् जो चन्द्रमा को अपना प्रकाश देता है, वह इन्द्र । ७−(इन्धे+भूतानि) ञिइन्धी दीप्तौ । जो सब भूतों के मध्य प्रविष्ट होकर चैतन्य प्रदान से प्रकाशित कर रहा है, वह इन्द्र । इस अभिप्राय को लेकर वाजसनेयी कहते हैं कि−इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषस्तं वा एतमिन्धं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः (श० ब्रा० १४ । ६ । १० । २)इसका आशय यह है कि वास्तव में इन्धनाम होना चाहिये । इन्ध को ही परोक्षदृष्टि से इन्द्र कहते हैं । ८−आग्रयणनामा मुनि कहते हैं कि (इदं करणाद्+इन्द्रः) जो इस जगत् को करता है, वह इन्द्र=परमात्मा । ९−औपमन्यवनामा मुनि कहते हैं (इदं दर्शनाद्+इन्द्रः) विवेक से जो देखा जाय, वह इन्द्र । १०−(इदि परमैश्वर्य्ये) परमैश्वर्य्ययुक्त जो हो, वह इन्द्र । ११−(इञ्छत्रून् दारयति) दॄ भये । जो इन्=परमेश्वर शत्रुओं को भय दिखलाता है, वह इन्द्र । १२−(द्रावयिता+वा) दॄ गतौ, शत्रुओं को जो भगाता है, वह इन्द्र । १३−(आदरयिता+वा+यज्वनाम्) यज्वा अर्थात् जो यागादि शुभकर्म करनेवाले हैं, उनको जो आदर करता है, वह इन्द्र । इत्यादि इन्द्र शब्द के निर्वचन से सूर्यवाची, राजवाची, जीववाची और ब्रह्मवाची इन्द्रशब्द होता है । इसके अतिरिक्त ब्राह्मणग्रन्थों में विविध प्रकार के अर्थ इन्द्र शब्द के किये गये हैं । वेद के प्रत्येक शब्द को अच्छे प्रकार जानना, यह भी एक महाधर्म है । शब्दों के धात्वर्थ जानने से उपासकों के मन में परमात्मा के गुणों की स्थापना होती है और वैदिक शब्दों का गौरव प्रतीत होता है । इति ॥१ ॥
विषय
एक मात्र उपास्य प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
हे ( सखायः ) मित्र जनो ! ( अन्यत् ) और किसी को ( मा चित् शंसत ) कभी पूज्य, उपास्य मत कहो और किसी की उपासना मत करो। ( मा रिषण्यत ) हिंसा कभी मत करो। ( वृषणं ) सुखों की वर्षा करने वाले, सर्वशक्तिमान्, जगत् के प्रबन्ध करने वाले, व्यवस्थापक ( इन्द्रम् ) परमैश्वर्य के स्वामी की ( इत् ) ही ( स्तोत ) स्तुति किया करो। ( सुते ) इस उत्पन्न जगत् में ( सचा ) एक साथ बैठ कर ( मुहुः ) बार २ ( उक्था च ) नाना स्तुति वचन ( शंसत ) कहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1176
ओ३म् मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत ।
इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥
ऋग्वेद 8/1/1
ओ३म् मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत।
इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥
अथर्ववेद 20/85/1
ओ३म् मा꣡ चि꣢द꣣न्य꣡द्वि श꣢꣯ꣳसत꣣ स꣡खा꣢यो꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत ।
इ꣢न्द्र꣣मि꣡त्स्तो꣢ता꣣ वृ꣡ष꣢ण꣣ꣳ स꣡चा꣢ सु꣣ते꣡ मुहु꣢꣯रु꣣क्था꣡ च꣢ शꣳसत ॥१३६०॥
सामवेद 242, 1360
प्रभु चरणों में, बैठ श्रद्धा से
अपना मन चित्त, हृदय सजा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
प्रेमाश्रु से, गद्-गद् होकर
निशदिन गीत, प्रभु के गा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
व्यर्थ चले, जीवन रथ पहिया
राग द्वेष के, दुर्गम पथ पर
हिंसक स्वार्थ, भरी वाणी से
करता टुकड़े, जीवन-रथ के
जिस वाणी का, प्रभु ना साक्षी
वाणी वह क्यों, बोले भला
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
या वाणी ले, नाम प्रभु का
या वाणी, चुप ही रह जाए
ऐसी वाणी, कभी ना बोलें
जो प्रभु से, हमें दूर हटाए
बचना चाहो, यदि विनाश से
मधुमय वाणी, बोलो सदा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
जागो आज से, एकमात्र उस
इन्द्र प्रभु की, स्तुतियाँ कर लो
इस सन्सार के, यज्ञ में मिलकर
प्यारो! प्रभु की, भक्ति कर लो
केवल प्रभु सुख - सौभाग्य की
करता है मंगल वर्षा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
सर्व समर्थ है, इक परमेश्वर
सब कुछ जो, दे सकता है
उसके सिवा ना, योग्य कोई
ना उसके जैसी, समता है
उस अनन्त सर्वशक्तिमान को
तन्मय होकर ही भजना
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
प्रभु चरणों में, बैठ श्रद्धा से
अपना मन चित्त, हृदय सजा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
प्रेमाश्रु से, गद्-गद् होकर
निशदिन गीत, प्रभु के गा
यह जीवन अनमोल तेरा
यह जीवन अनमोल तेरा
रचनाकार, वादक व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- १८.८.१९९९ २३.३०रात्रि
राग :- कामोद
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- हे प्रभु! तेरे गीत गाएं 🎧वैदिक भजन ७५५ वां
*तर्ज :- *त्या स्वासां ची( मराठी भाषा)
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
हे प्रभु! तेरे गीत गाएं
भाइयों! उस प्रभु के सिवाय इस संसार में हमारा कोई अन्य स्तुति करने योग्य नहीं है। किसी भी अन्य की स्तुति करने से हमारा कुछ बनेगा नहीं और हम जो यूं ही दिन भर बोलते रहते हैं, उससे अपनी हानि ही करते हैं। जो वाणी प्रभु- सेवा के उद्देश्य से उच्चारण नहीं की जाती, जो परमात्मा को साक्षी रखकर नहीं बोली जाती, जिसका प्रभु से कोई सम्बन्ध नहीं होता--ऐसी सब हमारी वाणी न केवल वृथा है, किन्तु हमारा नाश करने वाली है। जैसे मेंढक के टर्र -टर्र करने का और कुछ परिणाम नहीं होता, सिवाय इसके कि सांप को अपने भक्ष्य का पता मिल जाता है, उसी तरह मनुष्य अपने निरर्थक और परमेश्वरहीन प्रलापों के करते रहने के काल का ही शीघ्र ग्रास हो जाता है। इसलिए हे मनुष्य--जन्म पानेवालो! हे सखाओ! तुम क्यों यूं ही विनष्ट होते हो? अपने प्रभु के सिवाय क्यों अन्यों की स्तुति करके हिंसित होते हो? स्वार्थ, हिंसा, राग, द्वेष से भरी वाणीयां बोल-बोल कर क्यों हिंसक बनते हो और फलत: स्वयं भी नष्ट होते जाते हो? यदि तुम निरन्तर प्रभु नाम नहीं ले सकते हो तो कम से कम चुप रहो, पर किसी अन्य अस्तुत्य की स्तुति तो ना करो! ऐसी वाणी तो ना बोलो जो तुम्हें प्रभु से हटाकर विनाश की ओर ले जाने वाली हो! इसलिए भाइयों! जागो, आज से एकमात्र उस इन्द्र का ही दिन-रात स्तवन करो, सब अभीष्टों को बरसाने वाले सर्वशक्तिमान केवल उस परमेश्वर का ही स्तुति- कीर्तन करो। इस संसार-यज्ञ में सम्मिलित सब सखा मिलकर उस परम प्रभु के स्तोत्रों को गुंजाओ, अपने प्रत्येक यज्ञ-कर्म में उसे इन्द्र प्रभु में ही निमग्न होकर गुण-गान गाओ। तनिक देखो, उस 'वृषण'(अभीष्टों को बरसानेवाले)प्रभु के सिवाय इस संसार में और कौन है जो हम पर सब सुखों और अभीष्टों को बरसा रहा है? हम यूं ही मूर्खतावश कभी किसी मनुष्य, स्वामी व राजा को या किसी अन्य शक्ति को समर्थ समझकर उसकी स्तुति में लग जाते हैं, परन्तु देखो! उस सर्वसमर्थ परमेश्वर के सिवाय हमारा और कौन है जो हमें सब- कुछ प्रदान कर सकता है?
अतः आओ ! अब हम सदा उसके ही गीत गाएं और सब कुछ भूल जाएं, मस्त होकर उसके ही स्तोत्र बार-बार गायें और सुनाएं, प्रेमाश्रु से गद् -गद् होकर उसके ही गीत निरंतर गाते जाएं। और उसके गीतानन्द में खो जाएं।
विषय
प्रभु का ही शंसन
पदार्थ
१. 'प्रगाथ' मित्रों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि (सखायः) = हे मित्रो ! (अन्यत्) = प्रभु से भिन्न किसी अन्य का (मा चित् विशंसत) = शंसन व स्तवन मत करो। सदा प्रभु का स्मरण करते हुए तुम (मा रिषण्यत) = काम-क्रोध आदि से हिंसित मत होवो । जब हृदय में प्रभु का अधिष्ठान होता है, तो वहाँ वासनाओं का प्रवेश हो ही नहीं पाता। वासनाओं को हम न भी जीतवायें, पर प्रभु हमारे लिये इनका पराभव करते हैं तो ये वासनाएँ हमें हिंसित नहीं कर पाती । २. हे मित्रो ! (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (सचा) = साथ मिलकर (वृषणम्) = उस शक्तिशाली व सुखों का वर्षण करनेवाले (इन्द्रं इत्) = परमैश्वर्यशाली व शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को ही स्तोता स्तुत करो। (च) = और (मुहुः) = बारम्बार (उक्था) = ऊँचे से गाने योग्य स्तोत्रों का (शंसत) = उस प्रभु के लिये शंसन करो। यह प्रभु-स्तवन तुम्हें सबल बनायेगा और तुम वासनाओं व रोगों से हिंसित न होवोगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का शंसन हमें 'काम' के आक्रमण से बचाता है। इस प्रकार यह शंसन हमें हिंसित नहीं होने देता।
इंग्लिश (1)
Meaning
O friends, do not worship any other but One, be firm, never remiss, worship only Indra, sole lord absolute, omnipotent and infinitely generous, and when you have realised the bliss of the lord’s presence, sing songs of divine adoration spontaneously, profusely, again and again.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा उपदेश केलेला आहे की, हे उपासकांनो, तुम्ही परमैश्वर्यसंपन्न, सर्वरक्षक, सर्व कामनांना पूर्ण करणाऱ्या, सर्वांचे कल्याण करणाऱ्या एकमेव परमेश्वराची उपासना करा. परमेश्वराऐवजी एखाद्या जड पदार्थाची किंवा एखाद्या पुरुष विशेषाची उपासना करू नका. सदैव त्याचा सत्कार करण्याचा प्रयत्न करा व ज्या आर्ष ग्रंथात परमेश्वराच्या गुणांचे वर्णन केलेले आहे किंवा ज्या ग्रंथात त्याचा साक्षात्कार करण्याचे विधान केलेले आहे त्या ग्रंथाचा सदैव स्वाध्याय करत मनन करा ॥१॥
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