ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
यत्स्थो दी॒र्घप्र॑सद्मनि॒ यद्वा॒दो रो॑च॒ने दि॒वः । यद्वा॑ समु॒द्रे अध्याकृ॑ते गृ॒हेऽत॒ आ या॑तमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । स्थः । दी॒र्घऽप्र॑सद्मनि । यत् । वा॒ । अ॒दः । रो॒च॒ने । दि॒वः । यत् । वा॒ । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । आऽकृ॑ते । गृ॒हे । अतः॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्स्थो दीर्घप्रसद्मनि यद्वादो रोचने दिवः । यद्वा समुद्रे अध्याकृते गृहेऽत आ यातमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । स्थः । दीर्घऽप्रसद्मनि । यत् । वा । अदः । रोचने । दिवः । यत् । वा । समुद्रे । अधि । आऽकृते । गृहे । अतः । आ । यातम् । अश्विना ॥ ८.१०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सभाध्यक्षसेनाध्यक्षयोरूर्ध्वदेशविचरणं कथ्यते।
पदार्थः
(अश्विना) हे अश्विनौ ! (यत्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) दीर्घसद्मवति देशे (यद्, वा) यदि वा (अदः, दिवः, रोचने) अमुष्मिन्द्युलोके (यद्, वा) यदि वा (समुद्रे) अन्तरिक्षे (अध्याकृते) सुनिर्मिते (गृहे) सद्मनि (स्थः) भवेतम् (अतः, आयातम्) अतः स्थानादायातम् ॥१॥
विषयः
राजकर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ=प्रजानियुक्तौ पुण्यकृतराजानौ ! युवाम् । दीर्घप्रसद्मनि=प्रकर्षेण सीदन्ति उपविशन्ति प्रसीदन्ति हृष्यन्ति वा मनुष्या यत्र तत् प्रसद्मम्=प्रासादो राजभवनम् । दीर्घं प्रसद्म=दीर्घप्रसद्म । महा= प्रासादस्तस्मिन् । यद्=यदि सम्प्रति । स्थः=विराजमानौ वर्तेथे । यद्वा । दिवः=क्रीडायाः । दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु । अदोऽमुष्मिन् । रोचने=दीपने गृहे । क्रीडागृहे स्थ इत्यर्थः । यद्वा । समुद्रे=जलनिधौ । अध्याकृते=अधिकृतनिर्मिते । गृहभवने सम्प्रति वर्तेथे । अतोऽस्मात् स्थानत्रयादपि । अस्मान् आयातमागच्छतम् ॥१ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष का अन्तरिक्षादि ऊर्ध्वप्रदेशों में विचरना कथन करते हैं।
पदार्थ
(अश्विना) हे सेनापति सभाध्यक्ष (यत्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) दीर्घसद्मवाले देशों में (यद्, वा) अथवा (अदः, दिवः, रोचने) इस द्युलोक के रोचमान प्रदेश में (यद्, वा) अथवा (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (अध्याकृते, गृहे) सुनिर्मित देश में (स्थः) हों (अतः) इन सब स्थानों से (आयातम्) आएँ ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव स्पष्ट है अर्थात् याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप उक्त स्थानों में से कहीं भी हों, कृपा करके हमारे विद्याप्रचार तथा प्रजारक्षणरूप यज्ञ में आकर हमारे मनोरथ सफल करें ॥१॥
विषय
राजा का कर्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(अश्विना) हे गुणों के द्वारा प्रजाओं के मन में व्यापक ! प्रजानियुक्त हे पुण्यकृत राजा और अमात्यवर्ग ! आप दोनों इस समय (यद्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) राजकीय महाभवन में (स्थः) विराजमान हों (यद्वा) यद्वा (दिवः) क्रीड़ा के (अदः+रोचने) रोचन=प्रकाशमान गृह में अर्थात् क्रीड़ागृह में विराजमान हों (यद्वा) यद्वा (समुद्रे) समुद्र में (अध्याकृते) सुनिर्मित (गृहे) गृह में हों, कहीं पर हों (अतः) इस स्थान से आप (आयातम्) हमारे निकट अवश्य आवें ॥१ ॥
भावार्थ
सब कार्यों को छोड़ राजा स्वबलों के साथ प्रजा की ही रक्षा करे । राजभवन में या क्रीड़ास्थान में या अतिदूर अगम्य स्थान में वहाँ से आकर प्रजा की बाधाओं को दूर करे ॥१ ॥
विषय
जितेन्द्रिय स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य । वेग से जाने वाले साधनों से सम्पन्न पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) यदि तुम दोनों ( दीर्घ-प्र-सद्मनि ) बड़े भवनों वाले नगर में ( स्थः ) होवो, ( यद्वा ) या चाहे आप दोनों ( अदः ) इस दूरस्थ ( दिवः रोचने ) पृथिवी के क्रीड़ा, विनोदयुक्त किसी रुचिकर स्थान में होवो ( यद्वा ) अथवा चाहे ( समुद्रे ) जल में या समुद्र से घिरे गृह में ( अधि स्थः ) बैठे हो, तो भी हे ( अश्विना ) वेग से चलने वाले अश्वादि साधनों से सम्पन्न जनो ! आप ( अतः आ यातम् ) वहां से आया जाया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथ: काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ५ आर्ची स्वराड् बृहती। २ त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिगनुष्टुप्। ४ आर्चीभुरिक पंक्तिः। ६ आर्षी स्वराड् बृहती॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञ-ज्ञान व प्रभु का उपासन
पदार्थ
[१] वैदिक संस्कृति में यह पृथिवी 'देव-यजनी' कही गयी है, यह देवों के यज्ञ करने का स्थान है। ‘दीर्घ अस्थताः प्रसन्नानः यज्ञगृहाः यस्मिन् '। हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = यदि आप (दीर्घप्रसद्मनि) = इस विस्तृत यज्ञ गृहोंवाले पृथिवीलोक में (स्थः) = हो । (यद् वा) = अथवा यदि (अदः) = उस (दिवः) = द्युलोक के (रोचने) = दीप्त स्थान में आप हो। (यद् वा) = अथवा यदि (समुद्रे अधि) = [स मुद्] आनन्द से युक्त हृदयान्तरिक्ष में आकृते बनाये हुए (गृहे) = घर में हो अतः इस दृष्टिकोण से हे प्राणापानो! आप हमें (आयातम्) = प्राप्त होवो। [२] प्राणसाधना करनेवाला पुरुष अपने गृह को यज्ञगृह बनाने का प्रयत्न करता है। उसे यह स्मरण रहता है कि 'हविर्धानम्' अग्निहोत्र का कमरा उसके घर का प्रमुख कमरा होता है। यह प्राणसाधक ज्ञान दीप्त मस्तिष्करूप द्युलोक में निवास करता है। तथा यह साधक अपने हृदय को प्रभु का गृह [मन्दिर] बनाने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
भावार्थ-प्राणसाधक का घर 'यज्ञ-घर' बनता है, इसका मस्तिष्क दीप्त होता है, और इसका हृदय प्रभु का निवास स्थान बनता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Wherever you abide, in lofty halls or in the light of the high heaven, or rest in the sea or space or in an ornamented palace, wherever you are, come to us, Ashvins, harbingers of light and inspiration.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा भाव स्पष्ट आहे अर्थात् याज्ञिक लोकांचे कथन आहे, की हे सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, तुम्ही अनेक स्थानांपैकी कोणत्याही स्थानी असाल तर कृपा करून आमच्या विद्याप्रचार व प्रजारक्षणरूपी यज्ञात येऊन आमचे मनोरथ सफल करा ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal