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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं त॑ एमि त॒न्वा॑ पु॒रस्ता॒द्विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि मा॑ यन्ति प॒श्चात् । य॒दा मह्यं॒ दीध॑रो भा॒गमि॒न्द्रादिन्मया॑ कृणवो वी॒र्या॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । ए॒मि॒ । त॒न्वा॑ । पु॒रस्ता॑त् । विश्वे॑ । दे॒वाः । अ॒भि । मा॒ । य॒न्ति॒ । प॒श्चात् । य॒दा । मह्य॑म् । दीध॑रः । भा॒गम् । इ॒न्द्र॒ । आत् । इत् । मया॑ । कृ॒ण॒वः॒ । वी॒र्या॑णि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं त एमि तन्वा पुरस्ताद्विश्वे देवा अभि मा यन्ति पश्चात् । यदा मह्यं दीधरो भागमिन्द्रादिन्मया कृणवो वीर्याणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ते । एमि । तन्वा । पुरस्तात् । विश्वे । देवाः । अभि । मा । यन्ति । पश्चात् । यदा । मह्यम् । दीधरः । भागम् । इन्द्र । आत् । इत् । मया । कृणवः । वीर्याणि ॥ ८.१००.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, here I come before you in person and all noble and brilliant sages follow after me. When you secure my portion for me, then you perform noble actions also through me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या प्रशंसकाचा जेव्हा हा निश्चय होतो, की मला ईश्वराच्या ऐश्वर्यामधून आपल्या कर्मफलाच्या अनुकूल हिस्सा मिळत आहे. तेव्हा त्याच्या न्यायाने संतुष्ट प्रशंसक वीरतेची नाना कार्ये करण्यासाठी उत्साहित होतो. तो परमेश्वराचे हृदयापासून गुणगान करतो व दुसरे विद्वानही त्याच्या सारखेच प्रशंसक बनतात ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् प्रभु! (यदा) जब आपने मां मेरे हेतु (भागम्) भोग्य अंश को (दीधरः=अदीधरः) अपनी विचारधारा का विषय बनाया; (आदित्) और उसके उपरान्त (मया) मेरे द्वारा (वीर्याणि) वीरोचित नाना कार्य (कृणवः) कराने लगे तब मैं (तन्वा) अपने समग्र वितान सहित (ते) आपके (पुरस्तात्) समक्ष (अयम्) तत्काल (एमि) आता हूँ और (पश्चात्) मेरे पीछे-पीछे (विश्वे देवाः) सभी दिव्यता-इच्छुक (स्तोता मा) मेरे (अभि यन्ति) आश्रय में आते जाते हैं॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा के स्तोता को जब यह निश्चय हो जाता है कि मुझे उसके ऐश्वर्य में से अपने कर्मफल-अनुकूल अंश प्राप्त हो रहा है तो उसके न्याय से सन्तुष्ट श्रोता वीरता के नाना कार्य करने हेतु उत्साहित होता है; वह प्रभु का हृदय से गुणगान करता है एवं दूसरे विद्वान् भी उसके समान ही स्तोता बनते हैं॥१॥

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    विषय

    जीवों के कर्मफल-भोगार्थ परमेश्वर की शरण प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (ते पुरस्तात् ) तेरे आगे ( अयं ) यह मैं ( तन्वा ऐमि ) अपने देहसहित आता हूं। और इसी प्रकार ( मा पश्चात् ) मेरे पीछे (विश्वे देवाः) समस्त कामनावान् जीवगण, मुझ इन्द्रादि के समान ( त्वा पुरस्तात् अभियन्ति ) तेरे समक्ष आते हैं। तू ( यदा ) जब ( मह्यं भागम् दीधरः ) मेरे लिये सेवन करने योग्य अंश कर्मफल वा ग्राह्य विषय को रखता है, बनाता है, ( आत् इत् ) अनन्तर ही ( मया ) मुझ द्वारा ( वीर्याणि कृणवः ) नाना बलयुक्त कार्य करता है। जिस प्रकार स्वामी अधीनस्थ भृत्य जन के लिये उसका वेतनादि अंश प्रथम नियत कर देता है और उससे बड़े २, भारी काम भी करा लेता है उसी प्रकार परमेश्वर की व्यवस्था में भी सुकृतों के नाना उत्तम फल प्राप्त होने नियत हैं। उनको लक्ष्य कर जीव द्वारा नाना आश्चर्यजनक कर्म होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    निमित्तमात्रं भव [सव्यसाचिन्]

    पदार्थ

    [१] जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि (अयम्) = यह मैं (तन्वा) = इस शरीर के साथ (ते:) = सब देव (मा) = मेरे (पुरस्तात्) = आपके सामने (एमि) = उपस्थित होता हूँ। (विश्वे देवा:) = सब देव (मा) = मेरे (पश्चाद् अभियन्ति) = पीछे आते हैं, अर्थात् सब दिव्य गुण मुझे प्राप्त होते हैं। प्रभु के सामने उपस्थित होने पर सब दिव्य गुणों का हमारे में प्रवेश होता है। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यदा) = जब (मह्यम्) = मेरे लिये (भागं दीधरः) = भाग को धारण करते हैं, मुझे जब आपके भजनीय गुण प्राप्त होते हैं (आत् इत्) = तब शीघ्र ही (मया) = मेरे द्वारा आप (वीर्याणि कृणवः) = शक्तिशाली कार्यों को करते हैं। मैं आपका माध्यम बन जाता हूँ। और आपकी शक्ति से मेरे द्वारा सब कार्य होने लगते हैं। मैं आपका ही भक्त बन जाता हूँ। मेरे द्वारा आपसे किये जानेवाले सब कार्य महान् होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के सामने उपस्थित हों, हमें प्रभु के दिव्य गुण प्राप्त होंगे। जब प्रभु हमें भजनीय दिव्य गुणों को धारण करायेंगे, तो हमारे द्वारा महान् कार्य हो रहे होंगे।

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