ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
अद॑र्शि गातु॒वित्त॑मो॒ यस्मि॑न्व्र॒तान्या॑द॒धुः । उपो॒ षु जा॒तमार्य॑स्य॒ वर्ध॑नम॒ग्निं न॑क्षन्त नो॒ गिर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअद॑र्शि । गा॒तु॒वित्ऽत॑मः । यस्मि॑न् । व्र॒तानि॑ । आ॒ऽद॒धुः । उपो॒ इति॑ । सु । जा॒तम् । आर्य॑स्य । वर्ध॑नम् । अ॒ग्निम् । न॒क्ष॒न्त॒ । नः॒ । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्त नो गिर: ॥
स्वर रहित पद पाठअदर्शि । गातुवित्ऽतमः । यस्मिन् । व्रतानि । आऽदधुः । उपो इति । सु । जातम् । आर्यस्य । वर्धनम् । अग्निम् । नक्षन्त । नः । गिरः ॥ ८.१०३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
There is seen the light of Agni, best knower of the ways of life, where people concentrate their vows of piety and discipline. Let our songs of adoration rise and reach Agni, self-revealed, who opens the paths of progress and urges us on to reach the goal of rectitude for noble people.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभूभक्तीचा हट्ट संकल्प घेऊन त्याच्यासाठी प्रयत्न करणाऱ्याचे मार्गदर्शन स्वत: ईश्वर करतो. त्या मार्गदर्शकाला प्राप्त करविण्याचे साधन निश्चितपणे त्याचे गुणगानच आहे. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्मिन्) [जिस पथप्रदर्शक की खोज करने हेतु] (व्रतानि) संकल्पाधारित कर्मों, ब्रह्मचर्यपालन आदि, को (आ दधुः) हमने धारा था, वह (गातुवित्तमः) सर्वोत्तम मार्गवित् (अदर्शि) दिखाई दे गया। (सु जातम्) सम्यक्तया समिद्ध (आर्यस्य वर्धनम्) उन्नतिपथ के पथिक को प्रोत्साहन दाता (अग्निम्) इस ज्ञानरूपी तेजःस्वरूप प्रभु को (अस्माकं गिरः) हमारी वाणी (उपो नक्षन्त) उसके निकट ले जाती है॥१॥
भावार्थ
भगवान् की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प लेकर उसके लिये प्रयत्न करने वाले का मार्गदर्शक को अपने निकट प्राप्त कराने का साधन, निश्चय ही, उसका गुणगान ही है॥१॥
विषय
परम गुरु की उपासना सूर्य, पृथ्वी और परमेश्वर प्रकृति के कार्यों का वर्णन।
भावार्थ
( गातुवित्-तमः ) मार्ग, वाणी, ज्ञान आदि को जानने और अन्यों को जनाने हारा, भूमि को सूर्यवत् वेद वाणी का भली प्रकार प्रकाशित करने वाला प्रभु, गुरु ( अदर्शि ) सब को दर्शन करने योग्य है। ( यस्मिन् ) जिस के आश्रय या अधीन रहकर सब ( व्रतानि आदधुः ) व्रतों को धारण करते हैं। ( आर्यस्य वर्धनम् ) श्रेष्ठ जनों को बढ़ाने वाले ( जातम् ) सब को प्रकट, विदित, प्रसिद्ध ( अग्निम् ) पूज्य, तेजस्वी, ज्ञाता, ज्ञापक प्रभु, सर्व गुरु को (नः गिरः उपो सु नक्षन्त) हमारी स्तुति वाणियां अच्छी प्रकार प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरि: काण्व ऋषिः॥ १—१३ अग्निः। १४ अग्निर्मरुतश्च देवताः॥ छन्दः—१, ३, १३, विराड् बृहती। २ निचृद् बृहती। ४ बृहती। ६ आर्ची स्वराड् बृहती। ७, ९ स्वराड् बृहती। ६ पंक्तिः। ११ निचृत् पंक्ति:। १० आर्ची भुरिग् गायत्री। ८ निचृदुष्णिक्। १२ विराडुष्णिक्॥
विषय
गातु वित्तमः, आर्यस्य वर्धनः
पदार्थ
[१] वह (अग्नि) = अग्रेणी प्रभु (गातुवित्तमः) = अतिशयेन मार्ग का ज्ञाता अदर्शि हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होता है। (यस्मिन्) = जिस प्रभु में स्थित हुए हुए ये आराधक (व्रतानि) = अपने कर्त्तव्य कर्मों को (आदधुः) = धारण करते हैं। हृदयस्थ प्रभु मार्ग का दर्शन कराते हैं, और आराधक उस मार्ग पर आगे बढ़ता है। । [२] उस (सुजातम्) = हृदयों में सम्यक् प्रादुर्भूत (आर्यस्य वर्धनम्) = आर्यों के कर्त्तव्य कर्मों का आचरण करनेवालों के (वर्धनम्) = बढ़ानेवाले (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (नः) = हमारी (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ (उपोनक्षन्त) = प्राप्त हों ही । हम अवश्य प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें। यह प्रभु- स्तवन ही हमें मार्गदर्शन करायेगा, मार्ग पर बढ़ने की शक्ति देगा और उत्तम कर्मों को करते हुए हम वृद्धि को प्राप्त करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु मार्गदर्शक हैं, मार्ग पर बढ़ने की शक्ति देते हैं, मार्ग पर चलनेवालों का वर्धन करते हैं। सो प्रभु को हमारी स्तुतिवाणियाँ प्राप्त हों।
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