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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    य इ॑न्द्र सोम॒पात॑मो॒ मद॑: शविष्ठ॒ चेत॑ति । येना॒ हंसि॒ न्य१॒॑त्रिणं॒ तमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इ॒न्द्र॒ । सो॒म॒ऽपात॑मः । मदः॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । चेत॑ति । येन॑ । हंसि॑ । नि । अ॒त्रिण॑म् । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्र सोमपातमो मद: शविष्ठ चेतति । येना हंसि न्य१त्रिणं तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । इन्द्र । सोमऽपातमः । मदः । शविष्ठ । चेतति । येन । हंसि । नि । अत्रिणम् । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मनः सर्वोपरि बलवत्त्वं कथ्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! त्वम् (सोमपातमः) उत्पन्नपदार्थानां लयकर्त्तासि (यः, मदः) यो भवतो बलम् (शविष्ठः) सर्वेषु बलेषूत्तमः (चेतति) सर्वत्र जागरूकश्चास्ति (येन) येन बलेन (अत्रिणम्) वेदत्रयमार्गरहितम् (निहंसि) न रक्षसि (तम्) तत्ते बलम् (ईमहे) याचामहे ॥१॥

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    विषयः

    पुनरिन्द्रनाम्ना परमात्मा स्तूयते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र=महादेव । हे शविष्ठ=अतिशयेन बलवत्तम । शव इति बलनाम । यस्तव । सोमपातमः=अतिशयेन सोमान्=पदार्थान् पाति=रक्षति । यद्वा । पिबति=कृपादृष्ट्या अवलोकयतीति सोमपातमः=अनुग्रहदृष्ट्या पदार्थद्रष्टा । मदः=हर्षः । चेतति= विजानाति सर्वं तत्त्वतो जानाति । येन सर्वज्ञात्रा मदेन । अत्रिणम्=अत्तारं जगद्भक्षकमुपद्रवम् । हंसि=शमयसि । तं मदम् । वयमीमहे=प्रार्थयामहे । क्वचिद् गुण एव गुणिवद् वर्ण्यते ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा को सर्वोपरि बलवान् कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! आप (सोमपातमः) सकल उत्पन्न पदार्थों के लयकर्त्ता हैं (यः, मदः) जो आपका बल (शविष्ठः) सब बलों में श्रेष्ठ और (चेतति) सर्वत्र जागरूक है, (येन) जिससे (अत्रिणम्) वेदत्रयमार्गरहित को (निहंसि) नष्ट करते हैं, (तम्, ईमहे) उस बल की हम याचना करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    हे सर्वोपरि बलवान् परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा लयकर्त्ता हैं, आप सब बलों में सर्वश्रेष्ठ बलवान् तथा व्यापकत्वेन सर्वत्र जागरूक होकर सब कर्मों में द्रष्टा और वेदमार्ग से रहित पुरुषों के दण्डदाता हैं अर्थात् आप सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को अपने स्वरूप में धारण करते हुए सूक्ष्म और स्थूल संसार को एकदेश में रखकर सर्वत्र व्यापक हैं। हे प्रभो ! हम आपसे याचना करते हैं कि आप हमें शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक बल प्रदानकर बलवान् बनावें, ताकि हम अपने अभीष्ट फल को प्राप्त होकर मनुष्यजन्म सफल करें ॥१॥

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    विषय

    पुनः इन्द्र नाम से परमात्मा की स्तुति की जाती है ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र (शविष्ठ१) हे अतिशयबलवान् ! देव परमपूज्य ! (यः) जो तेरा (सोमपातमः) अतिशय पदार्थों की रक्षा करनेवाला वा कृपादृष्टि से अवलोकन करनेवाला (मदः) हर्ष=आनन्द (चेतति) सर्ववस्तु को याथातथ्य जानता है । “कहीं गुण ही गुणिवत् वर्णित होता है” और (येन) जिस सर्वज्ञ मद के द्वारा तू (अत्रिण२म्) अत्ता=जगद् भक्षक उपद्रव का (हंसि) हनन करता है (तम्) उस मद=आनन्द की (ईमहे) हम उपासकगण प्रार्थना करते हैं । ईमहे−ईधातु गत्यर्थ और याचनार्थक दोनों है ॥१ ॥

    भावार्थ

    यदि ईश्वरीय नियम से हम मनुष्य चलें, तो कोई रोग नहीं हो सकता, अतः इस प्रार्थना से आशय यह है कि प्रत्येक आदमी उसकी आज्ञापालन करे, तब देखें कि संसार के उपद्रव शान्त होते हैं या नहीं ॥१ ॥

    टिप्पणी

    १−शविष्ठ=शव यह नाम बल का है । जो परमबलिष्ठ हो, वह शविष्ठ । परमात्मा से बढ़कर कोई बलिष्ठ है नहीं, अतः वह शविष्ठ है । २−अत्रि=अत्रि और अत्रिन् में बहुत भेद है । ज्ञानी मुनि अग्नि आदि अर्थ में अत्रि शब्द और भक्षक उपद्रवी इत्यादि अर्थ में अत्रिन् शब्द प्रयुक्त होता है ॥१ ॥

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    विषय

    विश्वस्रष्टा की स्तुति।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुओं के नाशक ! हे ( शविष्ठ ) बलशालिन् ! हे ज्ञानवन् ! ( यः ) जो तू ( सोम-पातमः ) सोम, ऐश्वर्य की और जगत् वा राष्ट्र-प्रजाजन की पुत्रवत् ओषधिवनस्पति आदि को मेघ वा सूर्यवत् उत्तम रीति से पालन करने वाला और ( मदः ) सबको तृप्त एवं प्रसन्न करने वाला, आनन्दमय होकर ( चेतति ) सबको ज्ञान प्रदान करता है और ( येन ) जिस कारण से तू ( अत्रिणं ) जगत् के, प्रजा के भक्षक, नाशक का (नि हंसि) विनाश करता है अतः ( तम् ) उस तुझको हम लोग ( ईमहे ) प्राप्त होते और तुझ से रक्षादि की याचना-प्रार्थना करते हैं । अन्न ज्ञान देने और पालन, रक्षा करने वाले प्रभु की हम सदा स्तुति करें, उसी से सब कुछ मांगें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सोमपातमः ' मदः

    पदार्थ

    [१] हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विदारक प्रभो ! (यः) = जो (सोमपातमः) = अतिशेयन सोम का पान करनेवाला (मदः) = उल्लास चेतति जाना जाता है, (तम्) = उस मद को (ईमहे) = हम माँगते हैं। अर्थात् हम प्रभु की उपासना करते हुए सोमरक्षण से होनेवाले मद को प्राप्त हों। [२] हे इन्द्र ! हमें आप उस सोमरक्षण जनित मद को प्राप्त कराइये (येन) = जिससे कि आप (अत्रिणम्) = [अद भक्षणे] हमें खा ही जानेवाली वासनाओं को (निहंसि) = निश्चय से विनष्ट करते हैं। सोमरक्षण से शरीरस्थ रोगों के नाश की तरह हृदयस्थ वासनाओं का भी विनाश होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्मरण द्वारा हम सोम का रक्षण करते हुए उल्लासमय जीवनवाले हों और हमारा विनाश करनेवाली वासनाओं को सुदूर विनष्ट कर डालें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord most potent, highest protector and promoter of the beauty and joy of life, that ecstatic passion of yours which universally pervades, manifests and reveals your might and glory and by which you destroy the negative forces of life, we adore and pray for.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर ईश्वरीय नियमाप्रमाणे आम्ही वागलो तर कोणताही रोग होऊ शकत नाही. त्यासाठी प्रत्येक माणसाने त्याचे आज्ञापालन करावे तेव्हा बघावे की जगातील उपद्रव थांबतात की नाही ॥१॥

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