ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
इन्द्र॑: सु॒तेषु॒ सोमे॑षु॒ क्रतुं॑ पुनीत उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे वृ॒धस्य॒ दक्ष॑सो म॒हान्हि षः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । सु॒तेषु॑ । सोमे॑षु । क्रतु॑म् । पु॒नी॒ते॒ । उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे । वृ॒धस्य॑ । दक्ष॑सः । म॒हान् । हि । सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र: सुतेषु सोमेषु क्रतुं पुनीत उक्थ्यम् । विदे वृधस्य दक्षसो महान्हि षः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः । सुतेषु । सोमेषु । क्रतुम् । पुनीते । उक्थ्यम् । विदे । वृधस्य । दक्षसः । महान् । हि । सः ॥ ८.१३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मसकाशात् वेदप्रादुर्भूतिरुच्यते।
पदार्थः
(इन्द्रः) परमात्मा (सुतेषु, सोमेषु) सिद्धेषु ब्रह्माण्डगतकार्येषु (वृधस्य, दक्षसः) वर्धकस्य बलस्य (विदे) ज्ञानाय (उक्थ्यम्, क्रतुम्) कर्मप्रधानं पदार्थबोधकं वेदम् (पुनीते) संस्करोति (हि) अतः (सः) स परमात्मा (महान्) सर्वाधिकः ॥१॥
विषयः
इन्द्रवाच्येश्वरं प्रार्थयति ।
पदार्थः
इन्द्रः=अस्य जगतो द्रष्टा महेश्वरः । सुतेषु=क्रियमाणेषु । सोमेषु=सोमादियज्ञेषु । क्रतुम्=क्रियां व्यापारम् । अपि च । उक्थ्यम्=उक्थमुक्तिर्वचनं भाषणशक्तिञ्च । पुनीते=पुनीताम् । कस्मै प्रयोजनाय । वृधस्य=वृद्धेः । दक्षसः=बलस्य च । विदे=लाभाय । हि=यतः । स इन्द्रो महान् अस्ति, अतः स खलु सर्वं कर्तुं शक्नोति ॥१ ॥
हिन्दी (5)
विषय
अब परमात्मा से वेदचतुष्टय का प्रकट होना कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्रः) परमात्मा (सुतेषु, सोमेषु) इस ब्रह्माण्ड के कार्याकार होने पर (वृधस्य, दक्षसः) ऐश्वर्यवर्धक शक्ति के (विदे) ज्ञान के लिये (उक्थ्यम्, क्रतुम्) कर्मप्रधान पदार्थों के बोधक वेदचतुष्टय को (पुनीते) पुनः प्रकट करता है (हि) इसी से (सः) वह (महान्) सर्वाधिक है ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा सृष्टि के आदि में अर्थात् इस ब्रह्माण्ड के कार्य्याकार होने पर सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार तथा ऐश्वर्य्यप्राप्ति के साधन चारों वेदों को पुनः प्रकट करता है, जिससे मनुष्यों को सम्पूर्ण कर्मों का ज्ञान होता है, जैसा कि अन्यत्र भी वर्णन किया है किः−ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ ऋग्० ८।८।४८।१।उसी परमात्मा से ऋत=वेद, कार्य्यरूप प्रकृति, रात्रि, मेघमण्डल तथा समुद्रादि सम्पूर्ण पदार्थ उत्पन्न हुए और इसीलिये परमात्मा सबसे महान्=सर्वोपरि है, क्योंकि वह वेदों द्वारा मनुष्यों को ज्ञान की वृद्धि करनेवाला है, जिससे पुरुष ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर संसार में महान् होता है। अतएव मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि परमात्मवाणीरूप वेद का नित्य स्वाध्याय करते हुए पवित्र भावोंवाले बनें, जिससे मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त करने के अधिकारी हों ॥
विषय
इन्द्रवाच्य ईश्वर की प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्रः) इस सम्पूर्ण जगत् का द्रष्टा ईश्वर हम मनुष्यों की (वृधस्य) वृद्धि और (दक्षसः) बल की (विदे) प्राप्ति के लिये (सुतेषु) क्रियमाण (सोमेषु) विविध शुभकर्मों में (क्रतुम्) हमारी क्रिया और (उक्थ्यम्) भाषणशक्ति को (पुनीते) पवित्र करे (हि) क्योंकि (सः) वह इन्द्र (महान्) सबसे महान् है, इस कारण वह सब कर सकता है ॥१ ॥
भावार्थ
ईश्वर सब कर्मों में वैसी सुमति हमको देवे, जिससे हमारे सर्व व्यापार अभ्युदय के लिये पवित्रतम होवें ॥१ ॥
विषय
उसे कौन पाता है ?
शब्दार्थ
(सूर्य) हे सकल संसार को देदीप्यमान करनेवाले परमेश्वर ! तू ( इत् ह ) निश्चय से (उद् एषि) उस मनुष्य के हृदय में प्रकाशित होता है जो (श्रुतामघम्) धन होने पर उसे दीन-दुःखियों में वितरित करता है (वृषभम्) जो ज्ञान और भक्तिरस की धाराओं की वृष्टि करता है (नर्यापसम्) जो मनुष्य हितकारी, परोपकार आदि कार्य करता है और (अस्तारम् ) जो काम, क्रोध आदि शत्रुओ को परे भगा देता है ।
भावार्थ
संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा है कि उसे ईश्वर के दर्शन हों। ईश्वर-दर्शन के लिए कुछ साधना करनी पड़ती है । उपासक को अपने जीवन को निर्मल और पवित्र करना पड़ता है, कुछ विशेष गुणों को अपने जीवन में धारण करना पड़ता है। प्रस्तुत मन्त्र में ईश्वर को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति के कुछ लक्षण बताये गये हैं । १. ईश्वर को वह प्राप्त कर सकता है जो दानशील है, निरन्तर देता रहता है । जो अपने धन को दीन, दुःखी, पीड़ित और दुर्बलों में बाँटता रहता है । २. ईश्वर दर्शन का अधिकारी वह है जो लोगों पर ज्ञान और भक्तिरस की आनन्द-धाराओं की वर्षा करता है । ३. ईश्वर ऐसे व्यक्ति के हृदय में प्रकाशित होते हैं जो परोपकारपरायण है, जो दूसरों का हितसाधन करता है । ४. ईश्वर उसके हृदय मन्दिर में विराजते हैं जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं को दूर भगाकर अपने हृदय को शुद्ध और पवित्र बना लिया है ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी और सत्य ज्ञान का द्रष्टा, स्वामी, प्रभु ( सुतेषु सोमेषु ) पुत्रों और शिष्यों में गुरु के समान उत्पन्न वा निष्काम उपासक विद्वानों में ( क्रतुम् ) कर्म, ज्ञान और ( उक्थ्यम् ) वचन को भी ( पुनीते ) रसवत् ही पवित्र, स्वच्छ करता है। इस प्रकार वह उपासक ( वृधस्य ) वर्धक और ( दक्षसः ) बल के ( विदे ) प्राप्त करने के लिये यत्न करता है, क्योंकि ( सः ) वह प्रभु ( महान् हि ) बहुत बड़ा एवं पूज्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रशस्त 'बल व प्रज्ञान'
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (सोमेषु सुतेषु) = सोम के उत्पन्न होने पर, शरीर में शक्तिकणों के रक्षण के होने पर (उक्थ्यम्) = प्रशंसनीय (क्रतुम्) = प्रज्ञान व शक्ति को (पुनीते) = पवित्र करता है। प्रभु ने शरीर में सोम को उत्पन्न किया है। इस सोम के रक्षण के होने पर शरीर में बल का वर्धन होता है, तो मस्तिष्क में ज्ञान का। इस प्रकार जीवन प्रशस्त बनता है। [२] ये प्रभु (वृधस्य) = वृद्धि के कारणभूत (दक्षसः) = बल के (विदे) = प्राप्त कराने के लिये होते हैं। वस्तुतः (सः) = वे प्रभु (हि) = निश्चय से महान् बड़े हैं। प्रभु की महिमा अनन्त है। हम प्रभु का स्मरण करें। प्रभु स्मरण हमें वासनाओं के आक्रमण से बचायेगा और हम सोमरक्षण के द्वारा प्रशस्त बल व प्रज्ञान को प्राप्त करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सुरक्षित सोम के द्वारा हमारे लिये प्रशस्त 'बल व प्रज्ञान' को प्राप्त कराते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
When a special yajnic programme for the realisation of special knowledge, power and expertise in a particular field is completed with hymns of thanks and praise to divinity, then Indra, lord omnipotent and omniscient, sanctifies the joint endeavour of holiness and blesses the programme with success. Great is he.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराने सर्व कामात आम्हाला अशी सुमती द्यावी की ज्यामुळे आमचे सर्व व्यवहार अभ्युदयासाठी पवित्र व्हावेत. ॥१॥
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