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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ वस्व॒ एक॒ इत् । स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒हम् । यथा॑ । त्वम् । ईशी॑य । वस्वः॑ । एकः॑ । इत् । स्तो॒ता । मे॒ । गोऽस॑खा । स्या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत् । स्तोता मे गोषखा स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्वः । एकः । इत् । स्तोता । मे । गोऽसखा । स्यात् ॥ ८.१४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथास्मिन् सूक्ते राष्ट्रपतिमुपदिशन् तत्कर्तव्यं कथयति।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे सूर्यसदृशयोद्धः ! (यत्, अहम्) यद्यहम् (यथा, त्वम्) त्वमिव (एकः, इत्) एक एव (वस्वः, ईशीय) धनानामीश्वरः स्याम् तदा (मे, स्तोता) ममोपासकः (गोषखा, स्यात्) पृथिव्या अपि मित्रभूतः स्यात् ॥१॥

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    विषयः

    पुनरपीन्द्रस्य प्रार्थनामारभते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र परमदेव ! यथा=येन प्रकारेण । त्वमेक इत्=त्वमेक एव । वस्वः=वसुनो वासयितृणो धनस्य । ईशिषे । तथैव । यद्=यदि । अहमपि धनस्य । ईशीय=स्वामी भवेयम् । तदा । मे=मम । स्तोता । गोसखा+स्यात्=गवाम्=गोप्रभृतीनां धनानां सखा=सुहृद् भवेत् । तव कृपया ममापि स्तोता यथा धनसम्पन्नः स्यात् । तथाऽस्माननुगृहाण ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब इस सूक्त में राष्ट्रपति को उपदेश करते हुए उसका कर्तव्य कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे सूर्यसदृश योद्धा ! (यत्, अहम्) यदि मैं (यथा, त्वम्) आप सदृश (एकः, इत्) एक ही (वस्वः, ईशीय) रत्नों का ईश्वर होऊँ तो (मे, स्तोता) मेरा उपासक (गोषखा) पृथिवी भर का मित्रभूत (स्यात्) हो जाय ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि क्षात्रधर्म में स्थित भावी सम्राट् को चाहिये कि वह वर्तमान ऐश्वर्यसम्पन्न राजा के सदाचारों को देखकर उन्हीं का अनुकरण करे और सर्वदा यही उद्योग करता रहे, जिससे अपने अनुयायी कार्यसम्पादक किसी प्रजाजन को बिना अपराध पीड़ित न करे, क्योंकि प्रजा का सुखी होना ही साम्राज्य की चिरस्थिति में कारण है अर्थात् प्रजा के सुखी होने से ही साम्राज्य चिरकालस्थायी रह सकता है, अन्यथा नहीं ॥१॥

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    विषय

    पुनः इन्द्र की प्रार्थना आरम्भ करते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमदेव परमात्मन् ! (यथा) जिस प्रकार (एकः+इत्) एक ही (त्वम्) तू (वस्वः) सकल प्रकार के धनों के ऊपर अधिकार रखता है, वैसा ही (यद्) यदि (अहम्) मैं भी (ईशीय) सब प्रकार के धनों के ऊपर अधिकार रक्खूं और उनका स्वामी होऊँ, तो (मे) मेरा (स्तोता) स्तुतिपाठक भी (गोसखा+स्यात्) गो प्रभृति धनों का मित्र होवे । हे इन्द्र ! आपकी कृपा से मेरे स्तोता भी जैसे धनसम्पन्न होवें, वैसी कृपा हम लोगों पर कीजिये ॥१ ॥

    भावार्थ

    जैसे वह ईश दान दे रहा है, तद्वत् हम धन पाकर दान देवें ॥१ ॥

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    विषय

    ईश्वर से ऐश्वर्यादि की प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यथा ) जिस प्रकार ( त्वम् एकः ( इत् ) तू एक अद्वितीय ही ( वस्वः ईशीय ) ऐश्वर्य और बसे जीवगण का स्वामी है, ( यद् अहं ) वैसे ही जो मैं होऊं। फिर जिस प्रकार तेरा ( स्तोता गो-सखा ) स्तुतिकर्त्ता उत्तम वाणियों और इन्द्रियों का मित्र होता है उसी प्रकार इस लोक में ऐश्वर्यसम्पन्न ( मे ) मेरा ( स्तोता ) स्तुतिकर्त्ता वा उपदेष्टा विद्वान् भी ( गो-सखा ) भूमि का मित्र, वाणी का मित्र, गोसम्पदा का मित्र, 'गो' धनुष डोरी का मित्र, अर्थात् भूमि, वाणी, पशु और शस्त्रादिसम्पन्न बलवान् ( स्यात् ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन व ऐश्वर्य

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यथा) = जैसे (त्वम्) = आप (एकः इत्) = अद्वितीय ही (वस्वः) = सम्पूर्ण धनों के ईश हैं, यद्यदि (अहम्) = मैं भी इसी प्रकार (ईशीय) = इन धनों का ईश होता, तो (मे स्तोता) = मेरा स्तोता (गोषखा स्यात्) = गौओं सहित होता । अर्थात् उसे गवादिक धन की किसी प्रकार से कमी न रहती । [२] एक सामान्य धनी पुरुष का स्तोता भी आवश्यक धनों को प्राप्त कर लेता है, तो क्या प्रभु का उपासक भूखा मरेगा? प्रभु का उपासक पुरुषार्थ करता है और प्रभु में पूर्ण विश्वास रखता है। यह विश्वास ही उसके जीवन के उल्लास का रहस्य होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के उपासक को जीवन के लिये आवश्यक चीजों की कभी कमी नहीं रहती ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of universal knowledge, power and prosperity, if I were, like you, the sole master of wealth, wisdom and power in my field, then pray may my dependent and celebrant also be blest with wealth and wisdom of the world. (Let all of us together be blest with abundance of wealth and wisdom under the social dispensation of our system of government and administration.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा तो ईश दान देत आहे तसे आम्ही धन प्राप्त करून दान द्यावे ॥१॥

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