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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तं गू॑र्धया॒ स्व॑र्णरं दे॒वासो॑ दे॒वम॑र॒तिं द॑धन्विरे । दे॒व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । गू॒र्ध॒य॒ । स्वः॑ऽनरम् । दे॒वासः॑ । दे॒वम् । अ॒र॒तिम् । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । दे॒व॒ऽत्रा । ह॒व्यम् । आ । ऊ॒हि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे । देवत्रा हव्यमोहिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । गूर्धय । स्वःऽनरम् । देवासः । देवम् । अरतिम् । दधन्विरे । देवऽत्रा । हव्यम् । आ । ऊहिरे ॥ ८.१९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मैश्वर्यं वर्णयता तदुपासनायै उपासकः प्रेर्यते।

    पदार्थः

    हे उपासक ! (स्वर्णरम्, तम्) सर्वेषां नेतारं तं परमात्मानम् (गूर्धय) स्तुहि यतः (देवासः) दिव्यज्ञानवन्तः (देवम्, अरतिम्) दिव्यं प्राप्तव्यम् (दधन्विरे) धन्वन्ति (हव्यम्) सर्वं कर्म च (देवत्रा, ओहिरे) परमात्माधीनं प्रापयन्ति ॥१॥

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    विषयः

    स्तुतिविधानं करोति ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! तम्=परमदेवम् । गूर्धय=प्रार्थयस्व । गूर्ध स्तुतौ । यं देवासः=बुद्धिमन्तो मनुष्याः सूर्य्यादयश्च । दधन्विरे=धन्वन्ति= प्रकाशयन्ति । यं च । हव्यम्=आह्वातव्यं प्रणम्यम् । देवत्रा=देवेषु प्रकृतिषु मध्ये । आ+ऊहिरे=आवहन्ति=जानन्ति । कीदृशं तम् । स्वर्णरम्=स्वः सुखस्य सूर्य्यादेश्च । नरम्=नेतारम् । पुनः । देवम् । पुनः । अरतिम्=विरक्तं न केष्वप्यासक्तम् ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा के ऐश्वर्य्य का वर्णन करते हुए उसकी उपासना करने के लिये उपासक को प्रेरणा करते हैं।

    पदार्थ

    हे उपासक ! (स्वर्णरम्, तम्) सबके नेता उस परमात्मा की (गूर्धय) स्तुति करो, क्योंकि (देवासः) दिव्यज्ञानवाले विद्वान् (देवम्, अरतिम्) उसी प्राप्तव्य परमात्मा को (दधन्विरे) प्राप्त करते हैं (हव्यम्) और सब कर्मों को (देवत्रा, ओहिरे) परमात्मा ही के अधीन=समर्पण करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    इस सूक्त में अग्नि शब्द वाच्य परमात्मा की हेतुदर्शनपूर्वक विविधोपासनाओं का वर्णन किया गया है। “अग्नि” शब्द का अर्थ अग्रणी=अग्रगतिवाला आदि निरुक्तोक्त जानना चाहिये कि हे उपासक लोगो ! तुम सब कर्मों के प्रारम्भ में उस परमात्मा की स्तुति करो, क्योंकि वही सब कर्मों का नेता है, वही पुरुष दिव्यज्ञानवाला तथा परम चतुर है, जो परमात्मा के शरण में प्राप्त होकर सब कर्मों को करता और अन्त में उसी के अर्पण कर देता है ॥१॥

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    विषय

    स्तुति का विधान करते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (तम्) उस परमदेव की (गूर्धय) स्तुति कर जिसको (देवासः) मेधावीजन और सूर्य्यादि (दधन्विरे) प्रकाशित कर रहे हैं और जिस (हव्यम्) प्रणम्य देव को (देवत्रा) सर्व देवों अर्थात् पदार्थों में (आ+ऊहिरे) व्याप्त जानते हैं । वह कैसा है (स्वर्णरम्) सुख का और सूर्य्यादि देवों का नेता (देवम्) और देव है, पुनः वह (अरतिम्) विरक्त है, किन्हीं में आसक्त नहीं है ॥१ ॥

    भावार्थ

    ये सूर्यादि पदार्थ अपने अस्तित्व से अपने जनक ईश्वर को दिखला रहे हैं ॥१ ॥

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    विषय

    प्रभु-स्तुति का उपदेश।

    भावार्थ

    जिस (देवं) तेजस्वी, सर्व सुखदाता, परम पुरुष को ( देवासः ) सब मनुष्य और पृथिवी सूर्यादि गण ( अरतिं ) अपना स्वामी, और सबसे अधिक ज्ञानवान् रूप से ( दधन्विरे ) धारण करते हैं और जिसको वे ( देवत्रा ) विद्वानों, तेजस्वियों, दानियों और ज्ञानप्रकाशकों में से ( हव्यम् आ ऊहिरे ) सत्य मानते हैं ( तं ) उस ( स्व:-नरं ) सबके नायक संचालक एवं सूर्य, और प्रकाश को लाने और मोक्ष वा सूर्यवत् प्रभु पद तक पहुंचाने वाले की ( गूर्धय ) स्तुति करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सन्ध्या व अग्निहोत्र

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु की (गूर्धय) = स्तुत करो। जो प्रभु (स्वर्णरम्) = प्रकाशमय व सुखमय लोक की ओर हमें ले चलनेवाले हैं। (अरतिम्) = जो प्रभु [ऋ गतौ ] सर्वत्र गतिवाले हैं अथवा [अ-रतिम्] कहीं भी आसक्त नहीं। [२] (देवासः) = देववृत्ति के लोग इस प्रभु का (दधन्विरे) = धारण करते हैं, प्रभु का ध्यान करते हैं। और (देवत्रा) = वायु आगे देवों में (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को (ओहिरे) = प्राप्त कराते हैं। अग्निहोत्र में घृत व हव्य पदार्थों की आहुति देते हैं। अग्नि के द्वारा छोटे-छोटे कणों में विभक्त होकर ये पदार्थ सब वायु आदि देवों में पहुँचते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- देववृत्ति के व्यक्ति उस प्रकाशमय प्रभु की उपासना करते हैं और अग्निहोत्र को नियम से करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Praise the self-refulgent lord giver of heavenly bliss whom the divinities of light and enlightenment hold and reflect in all his glory, Agni, the lord adorable, all pervasive yet uninvolved, whom the noble and learned people perceive, realise and worship as the one worthy of worship.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सूर्य इत्यादी पदार्थ आपल्या अस्तित्वाने आपल्या जनक ईश्वराला दर्शवीत आहेत. ॥१॥

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