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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अ॒क्ष्णश्चि॑द्गातु॒वित्त॑रानुल्ब॒णेन॒ चक्ष॑सा । नि चि॑न्मि॒षन्ता॑ निचि॒रा नि चि॑क्यतुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒क्ष्णः । चि॒त् । गा॒तु॒वित्ऽत॑रा । अ॒नु॒ल्ब॒णेन॑ । चक्ष॑सा । नि । चि॒त् । मि॒षन्ता॑ । नि॒ऽचि॒रा । नि । चि॒क्य॒तुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्ष्णश्चिद्गातुवित्तरानुल्बणेन चक्षसा । नि चिन्मिषन्ता निचिरा नि चिक्यतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्ष्णः । चित् । गातुवित्ऽतरा । अनुल्बणेन । चक्षसा । नि । चित् । मिषन्ता । निऽचिरा । नि । चिक्यतुः ॥ ८.२५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With open eyes and distant vision, they know and watch the paths of social development better than the eye itself and, ever alert and vigilant, they can perceive, judge and decide things in the twinkling of an eye.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्राह्मण व क्षत्रिय हे दोघेही सर्व बाबतीत अत्यंत तीक्ष्ण असावेत. तात्काळ मानवगतीचे परिचायक असावेत व प्रसन्नतेने प्रजेला पाहावे. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तयोर्गुणान् दर्शयति ।

    पदार्थः

    पुनः । तौ मित्रावरुणौ । अक्ष्णः+चित्=नयनादपि । उत्तमौ । गातुवित्तरा=मार्गवेत्तारौ । पुनः । निमिषन्ता+चित्= सर्वमुन्मेषयन्तौ । निचिरा=निचिरौ=बद्धनयनौ । पुनः । अनुल्वणेन=प्रसन्नेन । चक्षसा=नेत्रेण । सर्वं निचिक्यतुः=नितरां चिनुतः ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उनके गुण दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    पुनः वे मित्र और वरुण (अक्ष्णः+चित्) नेत्र से भी बढ़कर उत्तम (गातुवित्तरा) मार्गवेत्ता हों और (निमिषन्ता+चित्) सब वस्तुओं को उस समय भी देखते हों, जब वे स्वयं (निचिरा) आँखें बन्द रखते हैं अर्थात् ज्ञानचक्षु से सब पदार्थ देखें, चर्मचक्षु से नहीं, फिर (अनुल्वणेन) प्रसन्न (चक्षसा+नि+चिक्यतुः) नेत्र से सब कुछ निश्चय करें ॥९ ॥

    भावार्थ

    वे दोनों सब वस्तु में बड़े ही तीक्ष्ण हों । शीघ्र मानवगति के परिचायक हों और प्रसन्न नयन से प्रजाओं को देखें ॥९ ॥

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    विषय

    उत्तम माता पिता से रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    वे ( अक्ष्णः चित् गातुवित्-तरा ) आंख से भी अधिक मार्ग जानने वाले, वा आंखों वा इन्द्रियमात्र के भी इशारों को खूब समझने वाले हों। वे दोनों (अनुल्वणेन) सोम्य ( चक्षसा ) दृष्टि वा (अनुल्वणेन वचसा ) कोमल, दुःख न देने वाले हृदयहारी वचन से ( निमिषन्ता ) नियम से व्यवहार करने वाले ( नि-चिरा ) खूब चिरायु होकर ( नि चिक्यतुः ) पूजा सत्कार योग्य होवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—९, १३—२४ मित्रावरुणौ। १०—१२ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, २, ५—९, १९ निचृदुष्णिक्। ३, १०, १३—१६, २०—२२ विराडष्णिक्। ४, ११, १२, २४ उष्णिक्। २३ आर्ची उष्णिक्। १७, १० पादनिचृदुष्णिक्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सन्मार्गदर्शक 'मित्रावरुणौ'

    पदार्थ

    [१] ये मित्र और (वरुण) = स्नेह व निर्देषता के भाव (अक्ष्णः चित्) = आँखों से भी अधिक (गातुवित्तरा) = मार्ग को जाननेवाले हैं। स्नेह व निर्देषता ठीक ही मार्ग को दिखाते हैं। द्वेष में मनुष्य गलत सोचता है। [२] ये स्नेह व निर्देषता (अनुल्बणेन चक्षसा चित्) = न दुःसह तेजवाली सोम्य दृष्टि से ही अथवा (अनुरवण) = अदुःखद - वचनों से ही [चक्षु व्यक्तायां वाचि] (निमिषन्ता) = सब व्यवहारों को करते हैं। स्नेह व निर्देषता में कटुता का स्थान नहीं रहता। [३] ये स्नेह व निर्देषता (निचिरा) = नितरां चिरन्तन होते हुए, अर्थात् दीर्घायुष्यवाले होते हुए (निचिक्यतुः) = [पूजितौ बभूवतुः सा०] सत्कार के योग्य होते हैं। स्नेह व निर्देषता से दीर्घायुष्य प्राप्त होता है तथा जीवन सत्करणीय बनता है। लोग ऐसे जीवन को आदर की दृष्टि से देखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता से [१] हमें जीवन का ठीक मार्ग दिखता है, [२] हमारे सब व्यवहार मधुर होते हैं, [३] दीर्घ सत्करणीय जीवन प्राप्त होता है।

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