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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - ककुम्मतीबृहती स्वरः - मध्यमः

    पिबा॑ सु॒तस्य॑ र॒सिनो॒ मत्स्वा॑ न इन्द्र॒ गोम॑तः । आ॒पिर्नो॑ बोधि सध॒माद्यो॑ वृ॒धे॒३॒॑ऽस्माँ अ॑वन्तु ते॒ धिय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पिबा॑अ॑ । सु॒तस्य॑ । र॒सिनः॑ । मत्स्व॑ । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । गोऽम॑तः । आ॒पिः । नः॒ । बो॒धि॒ । स॒ध॒ऽमाद्यः॑ । वृ॒धे॒ । अ॒स्मान् । अ॒व॒न्तु॒ । ते॒ । धियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिबा सुतस्य रसिनो मत्स्वा न इन्द्र गोमतः । आपिर्नो बोधि सधमाद्यो वृधे३ऽस्माँ अवन्तु ते धिय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिबाअ । सुतस्य । रसिनः । मत्स्व । नः । इन्द्र । गोऽमतः । आपिः । नः । बोधि । सधऽमाद्यः । वृधे । अस्मान् । अवन्तु । ते । धियः ॥ ८.३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ गव्यादिपदार्थैः सत्कृतः कर्मयोगी रक्षायै प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) अस्माकं (रसिनः) आस्वादवन्तं (गोमतः) गोसम्बन्धिपदार्थयुक्तं (सुतस्य) साधुसंस्कृतं (पिब, मत्स्व) पिब पीत्वा च तृप्नुहि (सधमाद्यः) सह मादयितव्यः (आपिः) बन्धुः (नः) अस्माकं (वृधे) वृद्धये (बोधि) जागृहि (ते) तव (धियः) बुद्धयः (नः) अस्मान् (अवन्तु) परिपालयन्तु ॥१॥

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    विषयः

    पुनरिन्द्रस्य प्रार्थनामारभते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र=इदं सर्वं पश्यतीतीन्द्रः=सर्वद्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् ! रसिनः=रसवतो रसिकस्यानुरक्तस्य । सुतस्य=नियुक्तस्याभिषिक्तस्य । अस्माकमात्मन आशयमिति शेषः । पिब=उत्कटेच्छया पश्य=अनुगृहाण । यद्वा । यज्ञसम्बन्धिवस्तून्यनुगृहाण । तथा । गोमतः=इन्द्रियवतो । वाणीमतः स्तुतिमतो वा नोऽस्मान् । मत्स्व=मादय=आनन्दय । अत्र णिचो लोपः । पुनः । आपिः=आपयिता बन्धुभूतस्त्वम् । नो बोधि=नोऽस्मान् । बोधय=ज्ञानं विज्ञानञ्च प्रदेहि । पुनः । यतस्त्वम् । सधमाद्यः=सहमादयिता सहानन्दयिता सांसारिक- वस्तुभिर्हर्षयिताऽसि सहानन्द्यो वाऽस्माभिः । अतस्ते=तव । धियो=विज्ञानानि । वृधे=वर्धनाय=अभ्युदयाय । अस्मानवन्तु=रक्षन्तु प्राप्नुवन्तु वा ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब गोरसों द्वारा कर्मयोगी का सत्कार करते हुए अपनी रक्षा की प्रार्थना करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) हमारे (गोमतः) गोरससम्बन्धी पदार्थयुक्त (रसिनः, सुतस्य) आस्वादयुक्त सम्यक्, संस्कृत रसों को (पिब, मत्स्व) पियें और पीकर तृप्त हों (सधमाद्यः) साथ-साथ रसपान से आह्लाद उत्पन्न कराने योग्य (आपिः) हमारे सम्बन्धी आप (नः) हमारी (वृधे) वृद्धि के लिये (बोधि) सर्वदा जागृत रहें (ते) आपकी (धियः) बुद्धियें (नः) हमको (अवन्तु) सुरक्षित करें ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में याज्ञिक पुरुषों की ओर से कर्मयोगी के प्रति यह प्रार्थना कथन की गई है कि हे परमैश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगिन् ! आप हमारे सुसंस्कृत सिद्ध किये हुए इन दूध, दधि तथा घृतादि गोरसों को पानकर तृप्त हों और हम सम्बन्धी जनों की वृद्धि के लिये आप सदैव प्रयत्न करते रहें अर्थात् विद्या तथा ऐश्वर्य्यवृद्धि सम्बन्धी उपायों का आप सदा हमारे प्रति उपदेश करें, जिससे हम विद्वान् तथा ऐश्वर्य्यशाली हों, या यों कहो कि आपकी विशालबुद्धि सदैव हमारे हितचिन्तन में प्रवृत्त रहे, यह हमारी प्रार्थना है ॥१॥

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    विषय

    पुनः परमदेव इन्द्र की प्रार्थना का आरम्भ करते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! सर्वद्रष्टा परमात्मन् ! तू (रसिनः) रसवान्=तेरे आनन्द के अनुभव करनेवाले (सुतस्य) यज्ञ में अभिषिक्त हमारे आत्मा के आशय को (पिब) उत्कट इच्छा से देख=उस पर अनुग्रह कर । यद्वा (रसिनः) रसयुक्त (सुतस्य) यज्ञिय वस्तु के ऊपर (पिब) अनुग्रह कर । तथा (गोमतः) स्तुतिरूप वाणियों से युक्त (नः) हम उपासकों को (मत्स्व) आनन्दित कर । तथा (आपिः) निखिल सुखों का देनेवाला बन्धु होकर तू (नः+बोधि) हम उपासकों को ज्ञान-विज्ञान सिखा । जिस हेतु तू (सधमाद्यः) सांसारिक पदार्थों के साथ-२ हमको आनन्द देनेवाला है अथवा तू ही हमारा आनन्द्य, स्तुत्य और पूज्य है । इस हेतु (ते+धियः) तेरे विज्ञान और कर्म (वृधे) अभ्युदय के लिये (अस्मान्+अवन्तु) हमारी रक्षा करें ॥१ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ईश्वर तुम्हारा सखा, तुमको मित्रवत् नाना उपायों से बचाता और प्राकृत दृष्टान्त से समझाता है, अतः उसकी आज्ञा पालो, तब ही वह अनुग्रह करेगा ॥१ ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थना और उस की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् प्रभो ! तू ( गोमतः ) वाणी से युक्त प्रार्थी वा इन्द्रियों से युक्त ( रसिनः ) रस, बल या सुख के अभिलाषी ( सुतस्य ) उत्पन्न जीव का ( पिब ) पालन कर । (नः मत्स्व ) हमें हर्षित कर । तू ( सधमाद्यः ) सत्संग से आनन्द प्राप्त करने हारा होकर गुरुवत् ( नः ) हमारा ( आपिः ) आप्त बन्धु होकर हमें ( वृधे ) हमारी वृद्धि के लिये ( बोधि ) ज्ञान प्रदान कर । और ( ते धियः ) तेरे कर्म, बुद्धियां और प्रार्थनाएं, स्तुतियां ( अस्मान् अवन्तु ) हमारी रक्षा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—२० इन्द्रः। २१—२४ पाकस्थाम्नः कौरयाणस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१ कुकुम्मती बृहती। ३, ५, ७, ९, १९ निचृद् बृहती। ८ स्वराड् बृहती। १५, २४ बृहती। १७ पथ्या बृहती। २, १०, १४ सतः पंक्तिः। ४, १२, १६, १८ निचृत् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २० विराट् पंक्तिः। १३ अनुष्टुप्। ११, २१ भुरिगनुष्टुप्। २२ विराड् गायत्री। २३ निचृत् गायत्री॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'गोमान् रसी' सोम

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (रसिन:) = जीवन को रसमय बनानेवाले (सुतस्य) = उत्पन्न सोम का (पिबा) = पान करिये और (नः मत्स्वा) = हमें आनन्दित करिये। प्रभु के अनुग्रह से सोम का रक्षण होता है। यह सोम हमारी इन्द्रियों को प्रशस्त बनाता है और जीवन को रसमय बनाता है। इस प्रकार प्रभु इस सोम के द्वारा हमें आनन्दित करते हैं। [२] हे प्रभो ! (नः आपि:) = हमारे मित्रभूत आप (बोधि) = हमारा ध्यान करिये। आप (सधमाद्यः) = हृदय में हमारे साथ स्थित हुए हुए हमें आनन्दित करनेवाले हैं। (ते धियः) = आपसे प्राप्त करायी गयी बुद्धियाँ (वृधे) = वृद्धि के लिये हों और (अस्मान् अवन्तु) = हमारा रक्षण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे जीवन में सोमरक्षण के द्वारा प्रशस्त इन्द्रियों को व रस को प्राप्त कराते प्रभु हमारे मित्र हैं। प्रभु से प्राप्त करायी गयी बुद्धियाँ हमारा वर्धन व रक्षण करती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, resplendent and mighty, karma yogi, great performer, come and have a drink of our delicious festive soma distilled and mixed with milk and cream, share the ecstasy, enlighten us, your own people, for progress and prosperity, and may your thoughts and wisdom protect, promote and guide us in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात याज्ञिक पुरुषाकडून कर्मयोग्याला ही प्रार्थना केलेली आहे, की हे परम ऐश्वर्यसंपन्न कर्मयोगी! तुम्ही उत्तम रीतीने सिद्ध केलेल्या या दूध, दही व घृत इत्यादी गोरसाचे पान करून तृप्त व्हा व संबंधित जनांच्या वृद्धीसाठी सदैव प्रयत्न करत राहा. अर्थात विद्या व ऐश्वर्य वृद्धीसंबंधी उपायांचा तुम्ही आम्हाला सदैव उपदेश करा. ज्यामुळे आम्ही विद्वान व ऐश्वर्यवान व्हावे. तुमची विशाल बुद्धी सदैव आमच्या हितचिंतनात प्रवृत्त असावी ही आमची प्रार्थना आहे. ॥१॥

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