ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः । प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । घ॒ । त्वा॒ । सु॒तऽव॑न्तः । आपः॑ । न । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । प॒वित्र॑स्य । प्र॒ऽस्रव॑णेषु । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । परि॑ । स्तो॒तारः॑ । आ॒स॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः । पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्तः । आपः । न । वृक्तऽबर्हिषः । पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतारः । आसते ॥ ८.३३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, destroyer of evil, darkness and suffering, we, your celebrants, having distilled the soma, spread and occupied the holy grass, we, sit and wait on the vedi for your presence in the flux of life as holy performers, while the flow of pure immortality continues all round in the dynamics of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
शुद्ध अंत:करणातच प्रभूची उपासना केली जाऊ शकते. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आपः न) जल के तुल्य (वृक्तबर्हिषः) स्वच्छ अन्तःकरण युक्त (त्वा सुतावन्तः) ध्यानरूपी यज्ञ से आपके सान्निध्य से प्राप्त होने वाले ब्रह्मानन्द को प्राप्त करते हुए (वयं घा) हम भी, हे (वृत्रहन्) हे विघ्नहर्ता परमैश्वर्ययुक्त प्रभो! (पवित्रस्य) पावन ब्रह्मानन्द के (प्रस्रवणेषु) प्रपातों के पास (स्तोतारः) आपकी उपासना करते (परि आसते) बैठे हैं ॥१॥
भावार्थ
निर्मल अन्तःकरण में ही प्रभु की उपासना संभव है ॥१॥
विषय
उत्तम प्रजाओं के जलधारावत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( आपः न ) जलधाराएं ( वृक्त बर्हिषः ) कुशा काशादि की वृद्धि करने वाली होकर ( प्र-स्रवणेषु ) निर्झरों में नीचे की ओर बहा करती हैं उसी प्रकार हे ( वृत्र-हन् ) शत्रुनाशक स्वामिन् ! ( वयं घ ) हम भी ( सुत-वन्तः ) उत्पन्न उत्तम प्रजावान् और अन्न ऐश्वर्यादिमान् (वृक्त-बर्हिषः) यज्ञ में आसनादिवत् विस्तीर्ण एवं प्रजाओं की वृद्धि करके ( त्वा परि ) तुझे प्राप्त हों ( पवित्रस्य ) शुद्ध पवित्र जल एवं ज्ञान के ( प्र-स्रवणेषु ) प्रवाहों के तटों पर विराजें और ( स्तोतारः ) स्तुतिकर्ता उपासक लोग भी ( परि आसते ) विराजते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
उपासक का जीवन
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (वयम्) = हम (घ) = निश्चय से (त्वा) = आपको (स्तोतारः) = [स्तवन करनेवाले बनकर उपासित करते हैं। [२] (सुतावन्तः) = सोम का सम्पादन करनेवाले, (आपः न) = जलों के समान, अर्थात् शान्त व नम्रता से गति करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) = जिन्होंने हृदयक्षेत्र से वासनाओं को दूर किया है [वृजी वर्जने], ऐसे ये स्तोता लोग (पवित्रस्य) = जीवन को पवित्र बनानेवाले सोम के (प्रस्त्रवणेषु) = शरीर में चारों ओर प्रस्तुत होने पर शरीर में ही व्याप्त होने पर, हे प्रभो ! परि आसते आपका उपासन करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासक [क] शरीर में सोम का रक्षण करता है, [ख] जलों की तरह शान्त व नम्र स्वभाववाले होते हैं, [ग] शरीर में सोम को व्याप्त करते हुए हृदय को पवित्र बनाते हैं।
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