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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निनेन्द्रे॑ण॒ वरु॑णेन॒ विष्णु॑नादि॒त्यै रु॒द्रैर्वसु॑भिः सचा॒भुवा॑ । स॒जोष॑सा उ॒षसा॒ सूर्ये॑ण च॒ सोमं॑ पिबतमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निना॑ । इन्द्रे॑ण । वरु॑णेन । विष्णु॑ना । आ॒दि॒त्यैः । रु॒द्रैः । वसु॑ऽभिः । स॒चा॒ऽभुवा॑ । स॒ऽजोष॑सौ । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । च॒ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निनेन्द्रेण वरुणेन विष्णुनादित्यै रुद्रैर्वसुभिः सचाभुवा । सजोषसा उषसा सूर्येण च सोमं पिबतमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निना । इन्द्रेण । वरुणेन । विष्णुना । आदित्यैः । रुद्रैः । वसुऽभिः । सचाऽभुवा । सऽजोषसौ । उषसा । सूर्येण । च । सोमम् । पिबतम् । अश्विना ॥ ८.३५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, complementary powers and forces of nature and humanity working in circuit, associated with Agni, fire energy, Indra, electric energy, Varuna, water energy, Vishnu, solar energy, Adityas, seasonal energies, Rudras, pranic energies, and Vasus, earth energies, in union with the dawn and the sun, absorb, protect, promote and bring the soma joy of life for the benefit of humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानवांना उत्तम व सुशील बनविण्यासाठी तीन मार्ग आहेत - विद्या, धर्म व राज-नियम; परंतु या तिन्हीत राजदंडानेच संसाराची स्थिती ठीक राहते कारण त्याच्या उग्रदंडाने लोक भितात. त्यामुळे राजमंडलाचे वर्णन या प्रकारे वेदात सांगितलेले आहे. ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि राजप्रकरणभारभते ।

    पदार्थः

    अत्र पुण्यात्मनो राजमण्डलस्यात्मानमुद्दिश्य वर्णनं प्रदर्श्यते । हे अश्विना=अश्विनौ पुण्यकृतौ राजानौ । युवाम् । अग्निना=अग्निहोत्रादिबशुभकर्मणा । सचाभुवा सहभुवौ सार्थमेव जातौ स्थः । यद्वा नित्यत्वाज्जीवस्य अग्निना सार्धमेव युवामपि आविर्भूतौ स्थः । एवमेवाग्रेऽपि बोध्यम् । सचाभुवेति पदं प्रत्येकमग्निप्रभृतिभिः संबद्धम् । एवमेव इन्द्रेण=विद्युच्छक्त्या । वरुणेन=वरणीयेन जलसामर्थ्येन, विष्णुना=सूर्यसामर्थ्येन, आदित्यैर्द्वादशमासशक्तिभिः । रुद्रैः=एकादशप्राणशक्त्या । वसुभिरष्टवसुशक्त्या च सचाभुवा सहभुवौ स्थः । अपि च उषसा प्रभातेन तदुपलक्षितेन मार्दवेन । सूर्येण च सूर्य्योपलक्षितेन तैक्ष्ण्येन सजोषसा संगतौ भवथः । तस्मात् । सोमं=यज्ञसिद्धमानन्दप्रदं सोमरसम् । पिबतम् ॥१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    इससे पुण्यात्मा राजा और राजमण्डल का आत्मा के उद्देश्य से वर्णन दिखलाया जाता है−(अश्विना) हे अश्वयुक्त राजन् तथा मन्त्रिदल ! आप (अग्निना) अग्निहोत्रादि शुभकर्म के (सचाभुवा) साथ ही हुए हैं । यद्वा यह आत्मा नित्य है, इस कारण अग्नि के साथ ही आप आविर्भूत हुए हैं । इसी प्रकार आगे भी जानना । यद्वा अग्नि सामर्थ्य के साथ राजा रहते हैं, क्योंकि आग्नेयास्त्रों का प्रयोग सदा ही करना पड़ता है । इसी प्रकार (इन्द्रेण) विद्युच्छक्ति के साथ आप हुए हैं, क्योंकि विद्युत् की सहायता से बहुत अस्त्र बनाए जाते हैं, जिनसे राजाओं को सदा प्रयोजन रहता है । (वरुणेन) वरणीय जलशक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि प्रजाओं के उपकारार्थ जलों को नानाप्रकार नहर आदिकों से नाना प्रयोग में राजा को प्रयुक्त करना पड़ता है । (विष्णुना) आप सूर्यशक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि सूर्य्य के समान विद्याप्रचारादि से अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न करते हैं । (आदित्यैः) द्वादश मासों की शक्ति के साथ हुए हैं, क्योंकि जैसे द्वादश मास द्वादश प्रकार से जीवों को सुख पहुँचाते हैं, वैसे आप भी (रुद्रैः) एकादश प्राणों के सामर्थ्य के साथ हुए हैं, क्योंकि जैसे ये एकादश प्राण शरीर में सुख देते हैं, तद्वत् आप प्रजामण्डल में विविध सुख पहुँचाते हैं । तथा (वसुभिः) आठ प्रकार के धनों के साथ ही आप हुए हैं और (उषसा) प्रातःकाल इससे मृदुता शीलता आदि गुणों का (सूर्य्येण) सूर्य्य शब्द से तीक्ष्णता प्रताप आदि का ग्रहण है, इसलिये मृदुता और तीक्ष्णता दोनों गुणों से आप (सजोषसा) सम्मिलित हैं, क्योंकि उभयगुणसम्पन्न राजा को होना चाहिये । इस कारण (सोमम्+पिबतम्) सोमरस का पान कीजिये, क्योंकि आप इसके योग्य हैं । इसी प्रकार आगे भी व्याख्या कर्तव्य है ॥१ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यजाति को उत्तम और सुशील बनाने के लिये तीन मार्ग हैं, विद्या, धर्म और राज-नियम । परन्तु इन तीनों में राजदण्ड से ही संसार की स्थिति बनी रहती है, क्योंकि इसके उग्र दण्ड से आपामर डरते हैं । अतः राजमण्डल का वर्णन इस प्रकार वेद में कहा गया है ॥१ ॥

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    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) उत्तम जितेन्द्रिय विद्वान् स्त्री पुरुषो ! हे रथी सारथिवत् राजा सचिवादि जनो ! आप दोनों (अग्निना) अग्नि (इन्द्रेण) विद्युत्, (वरुणेन ) जल, (विष्णुना) व्यापक, एवं विविध पदार्थों के शोधक, सूर्य (आदित्यैः) सूर्य की किरणों और ( रुद्रैः वसुभिः ) रोगनाशक और जीव के बसाने योग्य साधनों से और ( उषसा सूर्येण ) उषा, प्रभात की दीप्ति और सूर्य के समान ( स-जोषसा ) समान प्रीति युक्त होकर ( सोमं पिबतम् ) ‘सोम’ अर्थात् ऐश्वर्य का पालन, उत्पन्न जगत् और पुत्र राष्ट्रादि का पालन करो तथा ऐश्वर्य अन्न जलादि का उपभोग करो। इसी प्रकार वे दोनों ( सचा-भुवा ) सदा साथ, संगत, एवं समवाय से परस्पर सहयोगी रहकर ( अग्निना ) अग्रणी नायक, तेजस्वी विद्वान् ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान्, ( वरुणेन ) श्रेष्ठ, ( विष्णुना ) व्यापक बलशाली और ( आदित्यैः रुद्रैः वसुभिः ) सूर्य की किरणों, प्राणों और प्रजाजनों आदि से मिलकर ऐश्वर्यादि का उपभोग और पालन करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१—५, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्॥ ७–९, १३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, १०—१२, १४, १५, १७ भुरिक् पंक्ति:। २०, २१, २४ पंक्ति:। १९, २२ निचृत् पंक्ति:। २३ पुरस्ता- ज्ज्योतिर्नामजगती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्राणसाधना से दिव्य भावों का विकास

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (उषसा सूर्येण च) = उषाकाल व सूर्य के साथ (सजोषसा) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए आप (सोमं पिबतम्) = सोम का पान करो। प्राणसाधना के द्वारा शरीर में सोम [वीर्यशक्ति] की ऊर्ध्वगति होती है। यही अश्विनी देवों का सोमपान है। यह प्राणसाधना उषाकाल में प्रबुद्ध होकर प्रातः सूर्योदय तक होती है। इसी से इन्हें 'उषा व सूर्य से सेवित' कहा है। [२] ये प्राणापान (अग्निना) = अग्नि के साथ (सचाभुवा) = मिलकर होते हैं। 'अग्नि' अग्रेणी हैं, यह प्रगति का प्रतीक है। प्राणसाधना प्रगति का मूल है। इसी प्रकार इन्द्रेण इन्द्र के साथ होनेवाले ये प्राणापान हैं। ये हमें जितेन्द्रिय बनाते हैं। (वरुणेन) = वरुण के साथ संगत ये प्राणापान द्वेष का हमारे से वारण करते हैं। (विष्णुना) = विष्णु से संगत हुए-हुए ये हमें व्यापक व उदार वृत्ति को बनाते हैं [विषु व्याप्तौ] । [३] ये प्राणापान (आदित्यैः रुद्रैः वसुभिः) = आदित्य रुद्र व वसुओं के साथ होनेवाले हैं। ये हमें आदित्यों के समान सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले बनाते हैं। सब रोगों का ये विद्रावण करनेवाले रुद्रों के समान होते हैं। तथा हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले- ये 'वसु' ही होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर में सोम का रक्षण होता है और सब दिव्य भावों का विकास होता है। प्रात: उषाकाल व सूर्योदय का समय प्राणसाधना के लिये सर्वोत्तम समय है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस समय वायुमण्डल में ओषजोन गैस प्रचुरमात्रा में होती है।

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