ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
अ॒वि॒तासि॑ सुन्व॒तो वृ॒क्तब॑र्हिष॒: पिबा॒ सोमं॒ मदा॑य॒ कं श॑तक्रतो । यं ते॑ भा॒गमधा॑रय॒न्विश्वा॑: सेहा॒नः पृत॑ना उ॒रु ज्रय॒: सम॑प्सु॒जिन्म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वि॒ता । अ॒सि॒ । सु॒न्व॒तः । वृक्तऽब॑र्हिषः । पिब॑ । सोम॑म् । मदा॑य । कम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । यम् । ते॒ । भा॒गम् । अधा॑रयन् । विश्वाः॑ । से॒हा॒नः । पृत॑नाः । उ॒रु । ज्रयः॑ । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् । म॒रुत्वा॑न् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवितासि सुन्वतो वृक्तबर्हिष: पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो । यं ते भागमधारयन्विश्वा: सेहानः पृतना उरु ज्रय: समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर रहित पद पाठअविता । असि । सुन्वतः । वृक्तऽबर्हिषः । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुऽजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्ऽपते ॥ ८.३६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, omnipotent lord of existence, omnipresent in wide wide space, commanding over cosmic waters and winds, winner of all the universal battles of evolution and doer of a hundred acts of divinity, you are the ultimate protector of the maker of soma, the devotee on the vedi waiting for the emergence of divine consciousness. O lord, arise in the heart and drink the soma of his devotion to your satisfaction, most exhilarating and reserved for you.
मराठी (1)
भावार्थ
येथे इन्द्राचा आध्यात्मिक अर्थ अंतरात्मा, जीवात्मा इत्यादी ग्रहण केला गेला आहे. अंतरात्म्यालाही दिव्य आनंदाच्या प्राप्तीची प्रेरणा दिली पाहिजे व हे त्याच जीवाला शक्य आहे ज्याचे अंत:करण शुद्ध व दिव्यानंदाने प्रेरित आहे. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शतक्रतो) विविध कार्य करने वाले (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मा! तू (वृक्तबर्हिषः) पावन अन्तःकरण वाले (सुन्वतः) सुखों के कर्ता साधक को (अवितासि) सर्वथा संतुष्ट करेगा। इस हेतु (विश्वाः पृतनाः) सभी आक्रामक शत्रुभूत दुर्भावनाओं को (सं सेहानः) पूर्णरूप से पराजित करता हुआ; (उरुज्रयः) व्यापक व नितान्त तेजस्वी; (अप्सुजित्) प्राणशक्ति विजेता और अतएव (मरुत्वान्) इन्द्रियजयी तू इन्द्र, विद्वानों ने (ते) तेरा (यं भागम् अधारयन्) दिव्य आनन्द में जितना अंश निर्धारित किया है, उस (कम्) सुखदायक (सोम) प्रेरणा को (पिब) ग्रहण कर॥१॥
भावार्थ
यहाँ इन्द्र का आध्यात्मिक अर्थ जीवात्मा आदि है। अन्तरात्मा भी दिव्य आनन्द की प्राप्ति की प्रेरणा ग्रहण करे। तभी वह दुर्भावनाओं को दूर कर इन्द्रियों व प्राणों का वशकर्ता बन सकेगा और यह वही अन्तरात्मा करेगा जिसका अन्तःकरण दिव्य आनन्द से प्रेरणा ग्रहण करे॥१॥
विषय
ऐश्वर्यवान् विद्वान् वा राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( शतक्रतो ) अनेक प्रज्ञानों और अनेक कर्म करने हारे ! राजन् ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! विद्वन् ! प्रभो ! तू ( सुन्वतः ) उपासना करने वाले, यज्ञशील, ( वृक्त-बर्हिषः ) आसनार्थ कुशादि बिछाकर बैठे हुए विद्वान् जन का ( अविता असि ) रक्षा करने वाला है। तू ( मदाय ) आनन्द लाभ के लिये ( सोमं पिब ) सोम, उत्पन्न जगत्, पुत्रवत् प्रजा शिष्यादि (सत्पते) सज्जनों के पालक ! ( इन्द्र ) शत्रुओं और दुष्ट पुरुषों के नाशक ! तू ( मरुत्वान् ) बलवान् पुरुषों का स्वामी होकर (अप्सु-जित्) प्राप्त प्रजाओं में सर्वातिशायी होकर (उरु ज्रयः) बड़े भारी वेग और बल को तथा ( विश्वाः पृतनाः ) समस्त सेनाओं को ( संसेहानः ) अच्छी प्रकार पराजित करता हुआ तू उस ( सोमं पिब ) ऐश्वर्य का भोग कर ( यं भागं ) जिस सेवनयोग्य अंश को ( ते ) तेरे लिये ( अधारयन् ) निर्धारित कर दें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ६ शक्वरी। २, ४ निचृच्छक्वरी। ३ विराट् शक्वरी । ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
विश्वाः पृतना: सेहानः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (सुन्वतः) = सोम का अभिषव करनेवाले, शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) = जिसने हृदयक्षेत्र से पापों का वर्जन किया है [वृजी वर्जने] उस यज्ञशील पुरुष के (अविता असि) = रक्षक हैं। इस रक्षण के लिये (सोमं पिब) = सोम का पान करिये, इसके सोम को शरीर में सुरक्षित करिये। कम्-इस आनन्दप्रद सोम को (मदाय) = जीवन में उल्लास के लिये पीजिये, शरीर में ही इसे लीन करिये [Imbibe] [२] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभो ! उस सोम का आप पान करिये (यं भागम्) = जिस भजनीय सोम को (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (अधारयन् =) धारण करते हैं। इस सोम के रक्षण के द्वारा ही तो हम तीव्र बुद्धि बनकर प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। [३] हे प्रभो ! आप इस सोमरक्षण के द्वारा इन यज्ञशील पुरुषों के जीवन में (विश्वाः पृतनाः) = सब शत्रु सेनाओं का तथा (उरुज्रयः) = उनके महान् वेग का (सं सेहानः) = सम्यक् पराभव करते हैं। आप (अप्सुजित्) = सब कर्मों में हमें विजय प्राप्त कराते हैं। (मरुत्वान्) = प्रशस्त वायुवोंवाले हैं, शरीर में प्राणों के रूप से इन उत्तम वायुवों को प्राप्त कराते हैं और सत्पते सत्, अर्थात् उत्तम कर्मों के रक्षक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा प्रभु ही संयमी पवित्र हृदय पुरुष का रक्षण करते हैं। संयत सोम ही प्रभु-दर्शन का कारण बनता है और रोग व वासनारूप शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है।
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