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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    य॒ज्ञस्य॒ हि स्थ ऋ॒त्विजा॒ सस्नी॒ वाजे॑षु॒ कर्म॑सु । इन्द्रा॑ग्नी॒ तस्य॑ बोधतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञस्य॑ । हि । स्थः । ऋ॒त्विजा॑ । सस्नी॒ इति॑ । वाजे॑षु । कर्म॑सु । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । तस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञस्य हि स्थ ऋत्विजा सस्नी वाजेषु कर्मसु । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञस्य । हि । स्थः । ऋत्विजा । सस्नी इति । वाजेषु । कर्मसु । इन्द्राग्नी इति । तस्य । बोधतम् ॥ ८.३८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, wielder of power and justice, ruler of the nation, Agni, enlightened sage and scholar, high priest and leading authority on the values of the system of governance, be firmly joined together in the cleanest programme of government in all decisions, actions and developmental plans and their completion for advancement, and know it well that this is the purpose of governance and the social order. You are two leading participants in this sacred yajna. Know this and abide in your position.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    इन्द्राचे कर्म राज्यशासन आहे. तेव्हा येथे क्षत्रिय अर्थ स्वीकारलेला आहे व अग्नीचे कर्म यज्ञशासन आहे. येथे ब्राह्मणाच्या अर्थाचे ग्रहण केलेले आहे किंवा राजा व दूताचे. याचे कारण अग्नीला दूत म्हटले आहे. ब्राह्मण क्षत्रियांनी कधीही ईश्वरी आज्ञेचा तिरस्कार करता कामा नये. ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ब्रह्मक्षत्रकर्माणि निर्दिश्यन्ते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्राग्नी=हे क्षत्रियब्राह्मणौ यद्वा राजदूतौ ! इन्द्रः क्षत्रियोपलक्षको राज्यशासकत्वात् । अग्निर्ब्राह्मणोपलक्षकः कर्मशासकत्वात् । तस्य+बोधतम्=तदेतद्वस्तु । बोधतम्=युवां जानीतम् । हि=यतः । युवं यज्ञस्य । ऋत्विजा=ऋत्विजौ स्थः । पुनः सस्नी=शुद्धौ । पुनः वाजेषु कर्मसु=युद्धसम्बन्धिषु ज्ञानसम्बन्धिषु च कर्मसु । अधिकृतौ स्थः ॥–१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ब्राह्मण और क्षत्रियों के कर्म दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) हे क्षत्रिय तथा हे ब्राह्मण ! यद्वा हे राजन् तथा हे दूत ! आप दोनों (तस्य+बोधतम्) उस इस बात का पूर्ण रीति से ध्यान रक्खें, जानें, मानें और मनवावें (हि) क्योंकि आप दोनों (यज्ञस्य) सकल शुभकर्मों के (ऋत्विजा+स्थः) सम्पादक ऋत्विक् हैं (सस्नी) शुद्ध हैं और (वाजेषु) युद्ध और ज्ञानसम्बन्धी (कर्मसु) कर्मों में अधिकारी हैं । अतः इस ईश्वरीय बात को सदा ध्यान में रक्खें ॥१ ॥

    भावार्थ

    इन्द्र का कर्म राज्यशासन है, अतः इससे यहाँ क्षत्रिय का ग्रहण है और अग्नि का कर्म यज्ञशासन है, अतः इससे ब्राह्मण का ग्रहण है अथवा राजा और दूत, क्योंकि अग्नि को दूत कहा है । ब्राह्मण, क्षत्रिय को उचित है कि वे कदापि भी ईश्वरीय आज्ञाओं का तिरस्कार न करें ॥१ ॥

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    विषय

    इन्द्र अर्थात् विद्युत् और अग्नि के तुल्य विद्वानों राजा और अमात्यों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र, ऐश्वर्यवन् ! हे अग्ने ! ज्ञानवन् ! तुम दोनों विद्युत् और अग्नि के समान ( यज्ञस्य ऋत्विजा ) यज्ञ को ऋतु २ में अनुष्ठान करने वाले ( वाजेषु ) बलों, धनों और ज्ञानों में ( सस्नी ) निष्णात, शुद्ध और अन्यों को भी पवित्र और निष्णात करने वाले और (कर्मसु) कर्मों में भी ( सस्नी ) शुद्ध, पवित्र आचारवान् ( हि स्थः ) होवो। आप दोनों ( तव्य बोधतम् ) उस यज्ञ का ज्ञान करो, और अन्यों को उसका ज्ञान करावो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'जीवन पक्ष के ऋत्विज्' इन्द्राग्नी

    पदार्थ

    [१] 'इन्द्र' बल का प्रतीक है और 'अग्नि' प्रकाश का । ३६.७ में 'ब्रह्माणि वर्धयन् ' तथा ३७.७ में ' क्षत्राणि वर्धयन्' शब्दों में इन प्रकाश व बल का प्रतिपादन 'ब्रह्म व क्षत्र' शब्दों से हुआ है। ये प्रकाश और बल ही जीवनयज्ञ को सुन्दरता से चलाते हैं। हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के देवो! आप (हि) = ही (यज्ञस्य =) इस जीवनयज्ञ के (ऋत्विजा स्थः) = ऋत्विज् हो। आपके द्वारा ही यह जीवनयज्ञ चलता है। आप (वाजेषु) = शक्तियों में व (कर्मसु) = सब कर्मों में (सस्नी) = शुद्धता को करनेवाले हो । [२] हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के देवो! (तस्य) = उस जीवनयज्ञ का (बोधतम्) = आप ध्यान करो-उसे जानो-उसकी चिन्ता करो। आपको ही जीवनयज्ञ को सफल व सुन्दर बनाना है ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- बल व प्रकाश के दिव्य भाव जीवनयज्ञ के ऋत्विज् हैं। ये हमारी शक्तियों व कर्मों को पवित्र बनाते हैं। ये ही इसका ध्यान करनेवाले हैं।

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