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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निम॑स्तोष्यृ॒ग्मिय॑म॒ग्निमी॒ळा य॒जध्यै॑ । अ॒ग्निर्दे॒वाँ अ॑नक्तु न उ॒भे हि वि॒दथे॑ क॒विर॒न्तश्चर॑ति दू॒त्यं१॒॑ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । अ॒स्तो॒षि॒ । ऋ॒ग्मिय॑म् । अ॒ग्निम् । ई॒ळा । य॒जध्यै॑ । अ॒ग्निः । दे॒वान् । अ॒न॒क्तु॒ । नः॒ । उ॒भे इति॑ । हि । वि॒दथे॒ इति॑ । क॒विः । अ॒न्तरिति॑ । चर॑ति । दू॒त्य॑म् । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमस्तोष्यृग्मियमग्निमीळा यजध्यै । अग्निर्देवाँ अनक्तु न उभे हि विदथे कविरन्तश्चरति दूत्यं१ नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । अस्तोषि । ऋग्मियम् । अग्निम् । ईळा । यजध्यै । अग्निः । देवान् । अनक्तु । नः । उभे इति । हि । विदथे इति । कविः । अन्तरिति । चरति । दूत्यम् । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I worship Agni, lord of light and fire of life, giver of enlightenment, adored in Rks of the Veda. I invoke and adore Agni to join me at yajna for advancement and pray that it may inspire and bring us the benefit of other divinities of nature and humanity. The poet, creator, omniscient power at yajna, traverses between both heaven and earth and communicates between body and spirit like a messenger, an inspiration, and while Agni is at work all adversaries and negativities would vanish.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे अग्नी ईश्वराचेच नाव आहे. जो सर्वत्र विद्यमान व सर्वांशी संबंध असलेला आहे. जसा अग्नी सर्वात विद्यमान आहे तसे तो (ईश्वर) महाकवी, सर्वांचे ध्येय व पूज्य आहे. ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरप्यग्निनाम्ना परमात्मस्तुतिरारभ्यते ।

    पदार्थः

    अहम्=अग्निम्=सर्वशक्तिप्रदमीश्वरम् । अस्तोषि=स्तौमि । पुनः=ऋग्मिम्=ऋग्भिरर्चनीयम् । अग्निम् । यजध्वै=यष्टम् । ईडा=स्तुत्या स्तौमि । सोऽग्निः । नः=अस्माकम् । विदथे=यज्ञगृहे । देवान्=उपस्थितान् मान्यान् । आनक्तु=स्वस्वकर्मणि प्रेरयतु । हि=यतः । स कविः=सर्वज्ञोऽस्ति । तथा । उभे=द्यावापृथिव्यौ अन्तर्मध्ये । दूत्यम्=दूतकर्म । चरति । तत्कृपया । अन्यके=शत्रवोऽपि । समे=सर्वे । नभन्ताम्=विनश्यन्तु । नभतिर्हिंसाकर्मा ॥१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनरपि अग्नि नाम से परमात्मा की स्तुति का आरम्भ करते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्निम्+अस्तोषि) मैं उपासक उस सर्वशक्तिप्रद अग्नि नाम से प्रसिद्ध परमात्मा की स्तुति करता हूँ, पुनः (ऋग्मियम्+अग्निम्) ऋचाओं से स्तवनीय उसी के गुणों का गान (यजध्वै) सर्व कर्मों में पूजनार्थ (ईडा) स्तुति द्वारा कर रहा हूँ, (नः+विदथे) हमारे यज्ञगृह में उपस्थित (देवान्) माननीय विद्वान् जनों को (अनक्तु) शुभकर्म में वह लगावे । जो ईश (कविः) सर्वज्ञ है और (उभे+अन्तः) इन दोनों लोकों के मध्य (दूत्यम्+चरति) दूत के समान काम कर रहा है, उसी की कृपा से (अन्यके+समे) अन्यान्य सब ही शत्रु (नभन्ताम्) विनष्ट हो जाएँ ॥१ ॥

    भावार्थ

    ऐसे स्थलों में अग्नि नाम ईश्वर का ही है, जो सर्वगत सर्वलीन है । जैसे सबमें अग्नि विद्यमान है, वह महाकवि और ध्येय पूज्य है ॥१ ॥

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    विषय

    अग्नि, ज्ञानी और अग्रणी नेता पुरुष के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं ( ऋग्मियम् ) स्तुति योग्य ( अग्निम् ) ज्ञानवान् तेजस्वी प्रभु, विद्वान्, नेता की ( अस्तोषि ) स्तुति करता हूं, ( यजध्यै ) सत्संग करने और पूजा करने के लिये भी उसी ( अग्निम् ) अग्रणी, ज्ञानी की ( ईडा ) वाणी द्वारा स्तुति करूं । वह ( अग्निः ) अग्निवत् प्रकाशक (नः) हमारे (देवान्) किरणोंवत् दिव्य गुणों, काम्य पदार्थो वा विज्ञान के इच्छुक शिष्य जनों को ( अनक्तु ) प्रकट करे और ज्ञान द्वारा प्रकाशित करे। वह ( कविः ) क्रान्तदर्शी विद्वान् (विदथे) यज्ञ में अग्नि के तुल्य (विदथे) ज्ञान लाभ के कर्म में ( उभे हि अन्तः ) आकाश और भूमि के बीच सूर्य के समान तेजस्वी होकर ( उभे अन्तः चरति ) राजा प्रजा मित्र वा शत्रु दोनों वर्गों के बीच विचरता है। ( समे अन्यके ) अन्य समस्त शत्रुगण आप से आप ( नभन्ताम् ) नाश को प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु-स्तवन के द्वारा दिव्यता की प्राप्ति व दोषदहन

    पदार्थ

    [१] (ऋग्मियं) = स्तुति के योग्य (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु से (अस्तोषि) = स्तवन करता हूँ। उस (अग्निं) = प्रभु को (यजध्यै) = अपने साथ संगत करने के लिए यजध्यै मैं उसका यजन करता हूँ। वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (नः) = हमारे लिए देवान् सब दिव्यभावों को (अनक्तु) = प्राप्त कराए। प्रभु के सम्पर्क में दिव्यता प्राप्त होती ही है। [२] वह (कविः) = क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रभु (हि) = ही (उभे) = दोनों द्यावापृथिवी अथवा प्रकृति व आत्मतत्त्व के विदथे ज्ञान के निमित्त (अन्तः) = हमारे हृदयों में (दूत्यं चरति) = ज्ञान-सन्देश वहन के कार्य को करते हैं। प्रभु ही सब ज्ञानों के स्रोत हैं। इन ज्ञानों के परिणामस्वरूप (समे अन्यके) = सब काम-क्रोध आदि शत्रु (नभन्ताम्) = विनष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु स्तवन के द्वारा प्रभु का मेल होने पर दिव्यता प्राप्त होती है तथा वह ज्ञान प्राप्त होता है, जिस ज्ञान में सब काम-क्रोध आदि का दहन हो जाता है।

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