ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
अ॒स्मा ऊ॒ षु प्रभू॑तये॒ वरु॑णाय म॒रुद्भ्योऽर्चा॑ वि॒दुष्ट॑रेभ्यः । यो धी॒ता मानु॑षाणां प॒श्वो गा इ॑व॒ रक्ष॑ति॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठअस्मै । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्रऽभू॑तये । वरु॑णाय । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । अर्च॑ । वि॒दुःऽत॑रेभ्यः । यः । धी॒ता । मानु॑षाणाम् । प॒श्वः । गाःऽइ॑व । रक्ष॑ति । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा ऊ षु प्रभूतये वरुणाय मरुद्भ्योऽर्चा विदुष्टरेभ्यः । यो धीता मानुषाणां पश्वो गा इव रक्षति नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । ऊँ इति । सु । प्रऽभूतये । वरुणाय । मरुत्ऽभ्यः । अर्च । विदुःऽतरेभ्यः । यः । धीता । मानुषाणाम् । पश्वः । गाःऽइव । रक्षति । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For progress and prosperity in life, honour, adore and glorify Varuna, this lord supreme, ruler and dispenser of justice who, with his powers, judgement and actions, protects and promotes humans, animals, birds, etc., just as he protects and regulates stars, planets and satellites, all like the sacred cow. Honour and adore scholars and vibrant youth and warriors also and then all differences, oppositions, contradictions, alienations and enmities would vanish.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची पूजा जर मन:पूर्वक व श्रद्धेने केली तर सफल होते व त्या उपासकाची सर्व विघ्नेही नष्ट होतात. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्य ! प्रभूतये=प्रभूतिरभ्युदयः कल्याणञ्च । तदर्थम् । अस्मै=प्रत्यक्षवत् प्रसिद्धाय सर्वत्र भासमानाय । वरुणाय । वरुणाय=सर्वैर्वरणीयाय परमात्मने । तथा । विदुष्टरेभ्यः= विद्वत्तरेभ्यश्च । मरुद्भ्यो मितभाषिभ्यो योगिजनेभ्यश्च । उ=निश्चयेन । सुअर्च=सुपूजय । यो वरुणः । धीता=कर्मणा । मनुष्याणाम् । पश्वः=पशून् । गा इव=पृथिवीः इव । रक्षति । तेन रक्षणेन । अस्माकम् । समे=सर्वे । अन्यके=अन्ये शत्रवः । नभन्ताम्=नश्यन्तु ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यगण ! आप (प्रभूतये) स्ववृद्धि, अभ्युदय और कल्याण के लिये (अस्मै) सर्वत्र विद्यमान इस (वरुणाय) परम स्वीकरणीय परमपूज्य परमात्मा की (उ) मन को स्थिरकर (सु) अच्छे प्रकार (अर्च) पूजा करो और (मरुद्भ्यः) जो मितभाषी योगीगण हैं, उनकी भी पूजा करो तथा (विदुष्टरेभ्यः) जो अच्छे विद्वान् हों, उनको भी पूजो (यः) जो वरुणवाच्य परमदेव (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (पश्वः) पशुओं को भी (धीता) अपने कर्म से (गाः+इव) पृथिव्यादि लोकों के समान (रक्षति) बचाता है । जिससे (समे) सब ही (अन्यके) शत्रु (नभन्ताम्) नष्ट हों ॥१ ॥
भावार्थ
परमात्मा की पूजा यदि मन और श्रद्धा से की जाए, तो सर्व फल देती है और उस उपासक के सर्व विघ्न भी नष्ट हो जाते हैं ॥१ ॥
विषय
श्रेष्ठ पुरुषों के आदर का उपदेश। राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! तू (अस्मै) इस ( प्रभूतये ) उत्तम भूति, जन्म, सामर्थ्य और यश वाले ( वरुणाय ) श्रेष्ठ पुरुष और ( विदुस्तरेभ्यः ) अपने से अधिक जानने वाले विद्वान्, (मरुद्भयः) बलवान् मनुष्यों का ( अर्च ) आदर सत्कार कर। और उसका भी आदर करो ( यः ) जो ( धीता ) सुविचारित ( पश्वः गाः ) गौ आदि पशुओं के समान ही ( पश्वः गाः ) ज्ञान दर्शाने वाली वाणियों की ( मनुष्याणां ) मनुष्यों के उपकारार्थ ( रक्षति ) रक्षा करता है। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) समस्त हानिकारक जन नष्ट हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'वरुण व मरुतों' का पूजन
पदार्थ
[१] (अस्मा) = इस (सु प्रभूतये) = उत्तम प्रकृष्ट ऐश्वर्यवाले (वरुणाय) = पापनिवारक प्रभु के लिए तथा (विदुष्टरेभ्यः) = उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करानेवाले (मरुद्भ्यः) = प्राणों के लिए (ऊ) = निश्चय से (अर्चा) = पूजन करो। प्रभु की उपासना से पाप दूर होते हैं और उत्कृष्ट ऐश्वर्य प्राप्त होता है। प्राणसाधना से दोषों का क्षय होकर ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है। [२] (यः) = जो वरुण हैं वे (धीता) = कर्मों के द्वारा (मानुषाणां) = मनुष्यों की (पश्वः) = ज्ञानेन्द्रियों को [पश्यन्ति] इस प्रकार (रक्षति) = सुरक्षित करते हैं, (इव) = जैसे एक ग्वाला (गाः) = गौओं का रक्षण करता है। ऐसा होने पर अर्थात् वरुण द्वारा हमारी ज्ञानेन्द्रियों के रक्षित होने पर (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ:- हम पापनिवारक वरुण का उपासन करें। ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करानेवाले प्राणों की साधना में प्रवृत्त हों। प्रभु कर्मों में प्रेरित करके हमारी इन्द्रियों का रक्षण करते हैं और हमारे सब शत्रुओं का विनाश करते हैं।
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