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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒मे विप्र॑स्य वे॒धसो॒ऽग्नेरस्तृ॑तयज्वनः । गिर॒: स्तोमा॑स ईरते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । विप्र॑स्य । वे॒धसः॑ । अ॒ग्नेः । अस्तृ॑तऽयज्वनः । गिरः॑ । स्तोमा॑सः । ई॒र॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे विप्रस्य वेधसोऽग्नेरस्तृतयज्वनः । गिर: स्तोमास ईरते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । विप्रस्य । वेधसः । अग्नेः । अस्तृतऽयज्वनः । गिरः । स्तोमासः । ईरते ॥ ८.४३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These swelling notes of the songs of adoration in honour of Agni, light of life, sung by the vibrant, learned and dedicated sage of indefatigable faith and yajnic service resound in space all round.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ईश्वराचे उपासक कधी दु:खात निमग्न होत नाहीत त्याचीच माझ्या जिव्हेने स्तुती करावी, त्याच्याकडेच माझे लक्ष जावे. त्याच्यासंबंधीचे वचन बोलावे ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अग्निवाच्येश्वरस्तुतिः ।

    पदार्थः

    विप्रस्य=मेधाविनः । विशेषेण ज्ञानप्रचारकस्य वा । वेधसः=स्तुतीनां विधातुः । ममोपासकस्य इमे । स्तोमासः=स्तोमाः स्तुतयः । अस्तृतयज्वनः=अहिंसितयजमानस्य । गिरः=स्तवनीयस्य । अग्नेः=परमात्मनः । ईरते=ईरताम् गच्छन्तु ॥१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अग्निवाच्य ईश्वर की स्तुति ।

    पदार्थ

    (विप्रस्य) मेधावी और विशेषकर ज्ञानविज्ञानप्रचारक (वेधसः) विविध स्तुतियों के कर्त्ता मुझ उपासक के (इमे+स्तोमासः) ये स्तोत्र (स्तृतयज्वनः) जिसके उपासक कभी हिंसित और अभिभूत नहीं होते और (गिरः) स्तवनीय परमपूज्य (अग्नेः) परमात्मा की ओर (ईरते) जाएँ ॥१ ॥

    भावार्थ

    जिस ईश्वर के उपासक कभी दुःख में निमग्न नहीं होते, उसकी ही स्तुति मेरी जिह्वा करे, उसी की ओर मेरा ध्यानवचन पहुँचे ॥१ ॥

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    विषय

    प्रभु की वेदवाणियों द्वारा स्तुति।

    भावार्थ

    ( इमे ) ये ( स्तोमासः ) स्तुतियुक्त वेद के मन्त्रों द्वारा स्तुति करने वाले विद्वान् जन ( विप्रस्य ) विद्वान्, मेधावी, ( वेधसः ),जगत् के कर्त्ता ( अस्तृत-यज्वनः ) दानशील, यज्ञ कर्त्ता के नाश न करने वाले ( अग्नेः ) ज्ञानमय प्रभु के विषय में ( गिरः ईरते ) वेदवाणियों का उच्चारण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'विप्र-वेधा- अग्नि अस्तृतयज्वा' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (इमे) = ये (स्तोमासः) = स्तुतियुक्त मन्त्रों द्वारा स्तुति करनेवाले उपासक लोग (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु की (गिरः) = स्तुतिवाणियों का ईरते उच्चारण करते हैं। [२] उन प्रभु की स्तुतिवाणियों का उच्चारण करते हैं जो (विप्रस्य) = विशेषरूप से सबका पूरण करनेवाले ज्ञानी हैं। (वेधसः) = जगत के (विधाता) = निर्माण करनेवाले हैं। (अस्तृतयज्वनः) = यज्ञशील पुरुषों को नष्ट न होने देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस प्रभु की स्तुतिवाणियों का उच्चारण करें, जो 'विप्र-वेधाः- अग्नि व अस्तृतयज्वा ' हैं।

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