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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वाव॑तः पुरूवसो व॒यमि॑न्द्र प्रणेतः । स्मसि॑ स्थातर्हरीणाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाऽव॑तः । पु॒रु॒व॒सो॒ इति॑ पुरुऽवसो । व॒यम् । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ने॒त॒रिति॑ प्रऽनेतः । स्मसि॑ । स्था॒तः॒ । ह॒री॒णा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वावतः पुरूवसो वयमिन्द्र प्रणेतः । स्मसि स्थातर्हरीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाऽवतः । पुरुवसो इति पुरुऽवसो । वयम् । इन्द्र । प्रनेतरिति प्रऽनेतः । स्मसि । स्थातः । हरीणाम् ॥ ८.४६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, shelter home of the world, leader of humanity, presiding over mutually sustained stars and planets in motion, we are in bond with you and so shall we remain.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरच सर्वविधाता, सर्वकर्ता आहे. आम्ही माणसे त्याचेच सेवक आहोत. त्यासाठी त्याचीच उपासना, स्तुती व प्रार्थना करावी. ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे पुरूवसो=भूरिधन सर्वसम्पत्तिमन् ! हे प्रणेतः=निखिलविधीनां संपूर्णभुवनानाञ्च विधातः । हे हरीणां स्थातः=हरणशीलानां भुवनानाम् अधिष्ठातः । हे इन्द्र ! परमैश्वर्य्यसंयुक्त महेश ! त्वावतः=त्वत्सदृशस्य तवैवेत्यर्थः । उपासकाः । वयं स्मसि=वयं स्मः । तस्मादस्मान् रक्षेति शेषः ॥१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (पुरूवसो) हे भूरिधन हे निखिल सम्पत्तिसंयुक्त (प्रणेतः) हे निखिल विधियों तथा सम्पूर्ण भुवनों के विधाता (हरीणाम्+स्थातः) परस्पर हरणशील भुवनों के अधिष्ठाता (इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यशालिन् महेश्वर ! (त्वावतः) तेरे ही उपासक (वयम्+स्मसि) हम मनुष्य हैं, अतः हमारी रक्षा और कल्याण जिससे हो, सो करें ॥१ ॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ही सर्वविधाता सर्वकर्त्ता है । उसी के सेवक हम मनुष्य हैं, अतः उसी की उपासना स्तुति और प्रार्थना हम करें ॥१ ॥

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    विषय

    उत्तम शासक, नेता, स्वामी शासक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( पुरूवसो ) बहुत से धनों और प्रजाओं के स्वामिन् ! हे ( हरीणां प्रणेतः ) मनुष्यों के उत्तम नायक ! उत्तम मार्ग से ले जाने वाले ! हे ( स्थातः ) अधिष्ठातः ! ( वयं ) हम ( त्वावतः स्मसि ) तेरे जैसे स्वामी की प्रजा होकर रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभुभक्तों का संग

    पदार्थ

    [१] हे (पुरूवसो) = प्रभूतधन, (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन्, (प्रणेतः) = सर्वकर्मों के पार प्राप्त करानेवाले (हरीणां) = हमारे इन्द्रियाश्वों के (अधिष्ठातः) = प्रभो ! (वयं) = हम (त्वावतः) = आप जैसे के ही (स्मसि) = हैं अर्थात् हम उन्हीं लोगों के सम्पर्क में आएँ जो आपके गुणों को धारण करके कुछ आप जैसे बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- हम प्रभु जैसे व्यक्तियों के संग में चलें। यही प्रभु के समीप पहुँचने का मार्ग है। इसी से हम पर्याप्त धन को प्राप्त करेंगे, कर्मों को सफलता से पूर्ण करेंगे और इन्द्रियों के अधिष्ठाता बन पाएँगे।

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