ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्वा॒दोर॑भक्षि॒ वय॑सः सुमे॒धाः स्वा॒ध्यो॑ वरिवो॒वित्त॑रस्य । विश्वे॒ यं दे॒वा उ॒त मर्त्या॑सो॒ मधु॑ ब्रु॒वन्तो॑ अ॒भि सं॒चर॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दोः । अ॒भ॒क्षि॒ । वय॑सः । सु॒ऽमे॒धाः । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । व॒रि॒वो॒वित्ऽत॑रस्य । विश्वे॑ । यम् । दे॒वाः । उ॒त । मर्त्या॑सः । मधु॑ । ब्रु॒वन्तः॑ । अ॒भि । स॒म्ऽचर॑न्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादोरभक्षि वयसः सुमेधाः स्वाध्यो वरिवोवित्तरस्य । विश्वे यं देवा उत मर्त्यासो मधु ब्रुवन्तो अभि संचरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादोः । अभक्षि । वयसः । सुऽमेधाः । सुऽआध्यः । वरिवोवित्ऽतरस्य । विश्वे । यम् । देवाः । उत । मर्त्यासः । मधु । ब्रुवन्तः । अभि । सम्ऽचरन्ति ॥ ८.४८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
An intelligent and dedicated reader of holy literature, I have enjoyed the delicious soma food of higher and holier quality which all divines and mortals of the world enjoy, saying ‘it is honey sweet and savoury’, when they meet in sacred gatherings.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक बुद्धिमान, परिश्रमी, स्वाध्यायरत असतात त्यांनाच मधुर, स्वादिष्ट अन्न प्राप्त होते. जे लोक आळशी, कुकर्मी व असंयमी असतात ते राजा महाराजा महाश्रेष्ठी असतील तरीही त्यांना अन्न मधुर व स्वादिष्ट लागत नाही. कारण त्यांचा क्षुधाग्नी अतिशय मंद होतो, उदराशय बिघडते. परिपाकशक्ती न्यून होते. त्यामुळे त्यांना मधुर पदार्थही अति कटू वाटू लागतो. उत्तमोत्तम भोज्य वस्तूही त्यांना आवडत नाहीत. त्यासाठी असे म्हटलेले आहे की, परिश्रमी, निरोगी व संयमी माणूसच अन्नाचा स्वाद घेऊ शकतो. त्यासाठी असे म्हटलेले आहे की, माणसांनी व श्रेष्ठ माणसांनी असे मांस व अपवित्र अन्न तसेच दर्शनी घृणित दिसणारे अन्न खाऊ नये, ज्यामुळे आरोग्य बिघडेल. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्तेऽन्नस्य प्रशंसाऽस्ति ।
पदार्थः
अहम् । वयसः=अन्नस्य । अत्र कर्मणि षष्ठी । अन्नमित्यर्थः । अभक्षि=भक्षयेम । वयं सर्वे अन्नं भक्षयेमहि । कीदृशस्य वयसः । स्वादोः । पुनः । वरिवोवित्तरस्य=अतिशयेन सत्कारं लभमानस्य । पुनः । यम्=यदन्नम् । विश्वेदेवाः=सर्वे श्रेष्ठाः । उत मर्त्यासः=मर्त्याः । मधु ब्रुवन्तः=इदमन्नं मधु इति कथयन्तः । अभिसंचरन्ति=भक्षयन्ति । अहं कीदृशः । सुमेधाः=सुमतिः । पुनः । स्वाध्यः=सुकर्मा ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में अन्न की प्रशंसा है ।
पदार्थ
मैं (वयसः) अन्न (अभक्षि) खाऊँ । हम मनुष्यजाति अन्न खाएँ किन्तु माँस न खाएँ । कैसा अन्न हो, जो (स्वादोः) स्वादु हो, जो (वरिवोवित्तरस्य) सत्कार के योग्य है, जिसको देख कर ही चित्त प्रसन्न हो । पुनः (यम्) जिस अन्न को (विश्वे) सकल (देवाः) श्रेष्ठ (उत) और (मर्त्यासः) साधारण मनुष्य (मधु+ब्रुवन्तः) मधुर कहते हुए (अभि+संचरन्ति) खाते हैं, उस अन्न को हम सब खाएँ । खानेवाले कैसे हों, (सुमेधाः) सुमति और बुद्धिमान् हों और (स्वाध्यः) सुकर्मा स्वाध्यायशील उद्योगी और कर्मपरायण हों ॥१ ॥
भावार्थ
इसका आशय यह है कि जो जन, बुद्धिमान्, परिश्रमी, स्वाध्यायनिरत हैं, उनको ही मधुमय स्वादु अन्न प्राप्त होते हैं । जो जन आलसी, कुकर्मी और असंयमी हैं, वे यदि महाराज और महामहा श्रेष्ठी भी हैं, तो भी उन्हें अन्न मधुर और स्वादु नहीं मालूम होते, क्योंकि उनका क्षुधाग्नि अतिशय मन्द हो जाता है, उदराशय बिगढ़ जाता है, परिपाकशक्ति बहुत थोड़ी हो जाती है, इस कारण उन्हें मधुमान् पदार्थ भी अति कटु लगने लगते हैं, उत्तमोत्तम भोज्य वस्तु को भी उनका जी नहीं चाहता । अतः कहा गया है कि परिश्रमी नीरोग और संयमी आदमी ही अन्न का स्वाद ले सकता है । द्वितीय बात इसमें यह है कि मनुष्य और श्रेष्ठ मनुष्यों को उचित है कि माँस, अपवित्र अन्न, जिससे शरीर की नीरोगिता में बाधा पड़े और जो देखने में घृणित हो, वैसे अन्न न खाएँ ॥१ ॥
विषय
सोम। उत्तम अन्न, ओषधि सेवनवत् परमानन्दमय प्रभु का सेवन।
भावार्थ
मैं (सु-मेधाः) उत्तम ज्ञान से युक्त, उत्तम बुद्धिमान्, सत्संगी होकर ( स्वादोः ) सुस्वादु ( वयसः ) अन्न का (अभक्षि) भोजन करूं। और ( स्वाध्यः ) उत्तम रीति से धारण करने योग्य (परिवोवित्तरस्य) अति पूजनीय, उस धन का भी सेवन करूं, (यं विश्वे देवाः) जिसको सब उत्तम मनुष्य और ( उत मर्त्यासः ) साधारण मनुष्य (मधु ब्रुवन्तः) मधुर, आनन्दप्रद कहते हुए ( अभि सं चरन्ति ) प्राप्त होते और उपभोग करते हैं। इसी प्रकार मैं ( सु मेधाः) उत्तम बुद्धिमान् शिष्य, ( सु-आध्यः ) उत्तम अध्ययनशीलादि, (वरिवोवित्-तरस्य) उत्तम धन, आदर पूजादि लाभ करने वाले, ( स्वादोः वयसः ) उत्तम भोजन के भोक्ता, दीर्घायु, उस वृद्ध, प्रभु, पुरुष की सेवा करूं, जिसके प्रति सब विद्वान् जन ( मधु ब्रुवन्तः ) मधुर वचन कहते हुए वा 'मधु' आनन्दप्रद, मधुर ज्ञान, प्रवचन करते हुए उसके समीप उसकी शरण आते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
विषय
सुमेधाः स्वाध्यः
पदार्थ
[१] (सुमेधाः) = उत्तम बुद्धिवाला व (स्वाध्यः) = उत्तम कर्मोंवाला होता हुआ मैं (वरिवोवित्तरस्य) = उत्कृष्ट वरणीय धनों को प्राप्त करानेवाले (स्वादो:) = जीवन को मधुर बनानेवाले (वयसः) = आयुष्य के प्रमुख साधनभूत सोमरूप अन्न का (अभक्षि) = सेवन करूँ। सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखें। [२] उस सोम को मैं सुरक्षित रखूँ (यं) = जिसको (विश्वे) = सब (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष, (उत) = और (मर्त्यासः) = लौकिक दृष्टिकोणवाले पुरुष भी (मधु ब्रुवन्तः) = ' यह अतिशयेन मधुर है', ऐसा कहते हुए (अभिसञ्चरन्ति) = प्राप्त करते हैं- इस सोम के रक्षण के लिए यत्नशील होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें [१] सुमेधा व सुकर्मा बनाता है। [२] यह जीवन को मधुर बनाता है [३] जीवन धनों को प्राप्त कराता है। इसलिए देव व सामान्य मनुष्य भी इसे 'मधु' कहते हुए प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं।
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