ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
अ॒भि प्र व॑: सु॒राध॑स॒मिन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे । यो ज॑रि॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ पुरू॒वसु॑: स॒हस्रे॑णेव॒ शिक्ष॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । वः॒ । सु॒ऽराध॑सम् । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे । यः । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । म॒घऽवा॑ । पु॒रु॒ऽवसुः॑ । स॒हस्रे॑णऽइव । शिक्ष॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्र व: सुराधसमिन्द्रमर्च यथा विदे । यो जरितृभ्यो मघवा पुरूवसु: सहस्रेणेव शिक्षति ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । वः । सुऽराधसम् । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे । यः । जरितृऽभ्यः । मघऽवा । पुरुऽवसुः । सहस्रेणऽइव । शिक्षति ॥ ८.४९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
To the best of your intention and purpose and for whatever you wish to achieve, pray to Indra, lord of glory, world power and promotion and means of success, who gives a thousandfold wealth, honour and excellence to his celebrants.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या गुणकीर्तनाद्वारे त्या गुणांना धारण करण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. तो ऐश्वर्य देऊन सर्वांना वसवितो ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (मघवा) उत्तम धनादि ऐश्वर्य का स्वामी, (पुरुवसुः) अनेकों को बसाने वाला, (जरितृभ्यः) स्तोताओं को [उन द्वारा स्तुत गुणों के धारण द्वारा] (सहस्रेण इव) निश्चय ही हजारों प्रकार का ऐश्वर्य शिक्षति प्रदान करता है; जो (सुराधसम्) श्रेष्ठ सिद्धि प्रदान करता है; उस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् प्रभु की ओर (अभि) लक्ष्य करके (यथाविदे) यथायोग्य लाभ हेतु (प्र, अर्च) अर्चन करो-उसकी वन्दना करो॥१॥
भावार्थ
परमात्मा के गुणकीर्तन से उन गुणों को धारण करने का प्रयास करना चाहिये; वह इसी प्रकार सब को बसाता है॥१॥
विषय
ज्ञानप्रद, सर्वदाता, सर्वरक्षक प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
( यः ) जो ( मघवा ) उत्तम, पूज्य धन का स्वामी ( पुरुवसुः ) नाना धनों जनों का स्वामी होकर ( जरितृभ्यः ) स्तुतिकर्त्ता विद्वानों के हितार्थ (सहस्रेण इव) सहस्रों के समान (शिक्षति) दान देता है, उस ( सु-राधसम् ) उत्तम धनवान्, सुखपूर्वक आराधना करने योग्य, सब कर्मों के साधक ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् की ( यथा विदे ) यथावत् ज्ञान और धन का लाभ करने के लिये ( अभि प्र अर्च ) उत्तम रीति से अर्चना करो और उसी को ( प्र वः ) उत्तम रीति से वरण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'जरितृभ्यः पुरुवसुः ' इन्द्र
पदार्थ
[१] (वः) = तुम्हारे (सुराधसम्) = उत्तम ऐश्वर्य व साफल्य को देनेवाले (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (यथाविदे) = यथार्थ ज्ञान के लिए (अभि प्र अर्च) = प्रातः सायं प्रकर्षेण अर्चित कर। [२] उस इन्द्र का अर्चनकर (यः) = जो (मघवा) = परमैश्वर्यशाली (पुरुवसुः) = पालक व पूरक धनोंवाला प्रभु जरितृभ्यः = स्तोताओं के लिए सहस्त्रेण इव सहस्रों के समान शिक्षति-आवश्यक धनों को देता है। सहस्रों व्यक्ति भी मिलकर हमारे लिए वह धन नहीं प्राप्त कराते, जिसे कि प्रभु देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम परमैश्वर्यशाली प्रभु का पूजन करें। यही ज्ञानप्राप्ति का मार्ग है। इसी से हमें आवश्यक धनों की प्राप्ति होगी। प्रभु ही सब सफलताओं को देते हैं।
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