ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
प्र सु श्रु॒तं सु॒राध॑स॒मर्चा॑ श॒क्रम॒भिष्ट॑ये । यः सु॑न्व॒ते स्तु॑व॒ते काम्यं॒ वसु॑ स॒हस्रे॑णेव॒ मंह॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । श्रु॒तम् । सु॒ऽराध॑सम् । अर्च॑ । श॒क्रम् । अ॒भिष्ट॑ये । यः । सु॒न्व॒ते । स्तु॒व॒ते । काम्य॑म् । वसु॑ । स॒हस्रे॑णऽइव । मंह॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सु श्रुतं सुराधसमर्चा शक्रमभिष्टये । यः सुन्वते स्तुवते काम्यं वसु सहस्रेणेव मंहते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सु । श्रुतम् । सुऽराधसम् । अर्च । शक्रम् । अभिष्टये । यः । सुन्वते । स्तुवते । काम्यम् । वसु । सहस्रेणऽइव । मंहते ॥ ८.५०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For the sake of life’s fulfilment, honour and adore Indra, renowned and mighty master and controller of the superstructure of existence, who grants desired wealth, power and honour, and augments it a thousandfold for the celebrant who seeks and works for the soma joy and excellence of life with yajnic effort.
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्यइच्छुक साधकाने वेद इत्यादी शास्त्राचा अर्थ जाणावा. त्यानुसार ईश्वराच्या गुणांचे संपादन करण्याचा प्रयत्न करावा. त्यामुळे तो सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याचे पात्र बनू शकतो. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो नितान्त ऐश्वर्यसम्पन्न परमेश्वर (सुन्वते) ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले एवं उसके उत्पादक (स्तुवते) [वेदादि शास्त्रों के अर्थ की प्रशंसा करते हुए अर्थात् उनको हृदयंगम कर] साधक के लिए (काम्यं वसु) कामना करने योग्य ऐश्वर्य को (सहस्रे णेव) सहस्रों की संख्या में (मंहते) वृद्धि देता है, उस (सु श्रुतम्) भली-भाँति प्रसिद्ध, (सुराधसम्) सम्यक् सिद्धि की प्रेरणा देने वाले (शक्रम्) शक्तिशाली परमेश्वर की (अभिष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये (प्र) प्रकृष्ट रीति से (अर्च) स्तुति कर॥१॥
भावार्थ
ऐश्वर्य इच्छुक साधक वेदादि शास्त्रों के अर्थ को समझे, और उसके अनुसार प्रभु के गुणों को प्राप्त करने का प्रयास करे; इस तरह वह सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का पात्र बनता है॥१॥
विषय
इन्द्र परमेश्वर की स्तुति का उपदेश।
भावार्थ
(यः ) जो ( सुन्वते ) उत्तम आदर सत्कार करने वाले, ( स्तुवते ) स्तुतिशील पुरुष को (काम्यं वसु ) कामना करने योग्य धन ( सहस्रेण-इव मंहते ) सहस्रों संख्या में प्रदान करता है, उस ( श्रुतं ) जगत्-प्रसिद्ध ( सु-राधसम् ) सुख से आराधना करने योग्य, उत्तम धनसम्पन्न ( शक्रम् ) शक्तिशाली परम पुरुष की (अभिष्टये) अभीष्ट कार्य के लिये ( प्र सु अर्च ) उत्तम रीति से पूजा, आदर सत्कार कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ५, ७ निचृद् बृहती। ९ विराड् बृहती॥ २, ४, ६, १० पंक्तिः। ८ निचृत् पंक्ति:॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान ऐश्वर्य व शक्ति
पदार्थ
[१] (सुश्रुतं) = उत्तम ज्ञानवाले, (सुराधसम्) = उत्तम ऐश्वर्यवाले (शक्रं) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (अभिष्टये) = इष्टप्राप्ति की (पीतये प्र असे) = प्रकर्षेण पूजित कर । पूजित प्रभु उपासक को भी 'ज्ञान ऐश्वर्य व शक्ति' प्राप्त कराएँगे। [२] उस प्रभु का तू पूजन कर (यः) = जो (सुन्वते) = सोम का सम्पादन करनेवाले अथवा यज्ञशील (स्तुवते) = स्तोता के लिए (काम्यं वसु) = चाहनेयोग्य धन को (सहस्रेण इव) = सहस्रों की तरह (मंहते) = देते हैं। सहस्रों व्यक्ति भी वह धन नहीं प्राप्त कराते जो वे प्रभु स्तोता के लिए अकेले ही देनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'ज्ञानी, ऐश्वर्यशाली, शक्तिमान् प्रभु की अर्चना करें। यज्ञशील व स्तोता बनें और प्रभु से कमनीय धनों को प्राप्त करें।
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