ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
ऋषिः - कृशः काण्वः
देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
भूरीदिन्द्र॑स्य वी॒र्यं१॒॑ व्यख्य॑म॒भ्याय॑ति । राध॑स्ते दस्यवे वृक ॥
स्वर सहित पद पाठभूरि॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । वी॒र्य॑म् । वि । अख्य॑म् । अ॒भि । आ । अ॒य॒ति॒ । राधः॑ । ते॒ । द॒स्य॒वे॒ । वृ॒क॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूरीदिन्द्रस्य वीर्यं१ व्यख्यमभ्यायति । राधस्ते दस्यवे वृक ॥
स्वर रहित पद पाठभूरि । इत् । इन्द्रस्य । वीर्यम् । वि । अख्यम् । अभि । आ । अयति । राधः । ते । दस्यवे । वृक ॥ ८.५५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let me describe in detail the heroic power of Indra. O destroyer of the violent and wicked, your strength and competence against the destroyer shines all round, that’s your bounty and grandeur.
मराठी (1)
भावार्थ
या ऋचांचा अभिप्राय प्रशंसकाच्या दानशीलतेची प्रशंसा करणे होय. ऐश्वर्यवान व्यक्तीचे धन खूप असते; पण लुटारू लोकांना तो सहन करू शकत नाही. आपले धन, ऐश्वर्य तो दान करू शकतो, पण लुबाडणे त्याला आवडत नाही. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रस्य) संपत्तिवान् के (भूरि) प्रभूत (वीर्यम्) शक्ति की मैं (व्यख्यम्) विशेष रूप से व्याख्या करता हूँ। हे (दस्यवे) लुटेरे हेतु (वृक) उसे काट डालने वाले! (ते) तेरा (राधः) वैभव (अभि, आ, अयति) मेरे समक्ष आ रहा है॥१॥
भावार्थ
इन ऋचाओं का अभिप्राय स्तोता की दानशीलता का गुणगान करना है। इस ऋचा में कहा गया है कि धनी-मानी व्यक्ति का बल बहुत अधिक होता है; वह लुटेरे को तो सहन नहीं करता; अपना धन-ऐश्वर्य दान दे सकता है॥१॥
विषय
प्रस्कण्व की दानस्तुति।
भावार्थ
हे ( दस्यवे वृक ) प्रजा के नाशक, दस्यु, दुष्ट पुरुष के नाश करने के लिये वृक के समान भयप्रद ! ( इन्द्रस्य ते ) ऐश्वर्यवान् दुष्ट हन्ता तेरे ( वीर्यं भूरि इत् ) बहुत अधिक बल को ही मैं ( वि अख्यम् ) विशेष रूप से साक्षात् करता हूं और ( ते भूरि राधः ) तेरा बहुत अधिक धन हमारे सन्मुख आता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृशः काण्व ऋषिः॥ प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् गायत्री। २, ४ गायत्री। ३, ५ अनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
सर्वत्र प्रभु शक्ति का अनुभव
पदार्थ
[१] मैं (इन्द्रस्य) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु के (भूरि इत्) = महान् ही वीर्यं पराक्रम को (व्यख्यम्) = विशेष रूप से देखता हूँ। सब ओर प्रभु की शक्ति का अनुभव होता है। [२] हे (दस्यवे वृक) = दास्यववृत्ति के लिए वृक के समान, अर्थात् अशुभवृत्तियों को नष्ट करनेवाले प्रभो ! (ते राध:) = आपका ऐश्वर्य (अभ्यायति) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होता है। जब एक साधक सर्वत्र उस प्रभु की शक्ति का अनुभव करता है, तो अशुभवृत्तियों से ऊपर उठकर शुभ ऐश्वर्य को पाता ही है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सर्वत्र प्रभु की शक्ति को देखने का प्रयत्न करें। प्रभु हमारी अशुभ वृत्तियों को दूर करेंगे और शुभ ऐश्वर्य को प्राप्त कराएँगे।
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