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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुपर्णः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मानि॑ वां भाग॒धेया॑नि सिस्रत॒ इन्द्रा॑वरुणा॒ प्र म॒हे सु॒तेषु॑ वाम् । य॒ज्ञेय॑ज्ञे ह॒ सव॑ना भुर॒ण्यथो॒ यत्सु॑न्व॒ते यज॑मानाय॒ शिक्ष॑थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मानि॑ । वा॒म् । भा॒ग॒ऽधेया॑नि । सि॒स्र॒ते॒ । इन्द्रा॑वरुणा । प्र । म॒हे । सु॒तेषु॑ । वा॒म् । य॒ज्ञेऽय॑ज्ञे । ह॒ । सव॑ना । भु॒र॒ण्यथः॑ । यत् । सु॒न्व॒ते । यज॑मानाय । शिक्ष॑थः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमानि वां भागधेयानि सिस्रत इन्द्रावरुणा प्र महे सुतेषु वाम् । यज्ञेयज्ञे ह सवना भुरण्यथो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमानि । वाम् । भागऽधेयानि । सिस्रते । इन्द्रावरुणा । प्र । महे । सुतेषु । वाम् । यज्ञेऽयज्ञे । ह । सवना । भुरण्यथः । यत् । सुन्वते । यजमानाय । शिक्षथः ॥ ८.५९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra and Varuna, power and judgement of divinity, these are your contributions to life which in this grand yajna of human life vibrate in the yajnic projects of life inspired by you: In every yajna of life you energise and shine the holy activities when you bless and inspire the yajamana who creates and contributes to the joy of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक व्यक्ती जगात जीवन यज्ञ करत आहे, त्याचा आत्मा यजमान आहे. जो प्रभूकडून शक्ती, न्याय व प्रेमभावनेची प्रेरणा प्राप्त करत आहे. माणसाची प्रत्येक क्रिया ईश्वरीय शक्ती, प्रेम व न्यायभावनेने प्रेरित असली पाहिजे. ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्रावरुणा) शक्ति तथा न्याय व प्रेम भावना की प्रतीक दिव्य शक्तियो! (इमानि वाम्) ये तुम्हारे (भागधेयानि) गुण हैं जो (प्रमहे) मेरे प्रकृष्ट जीवन-यज्ञ में (वाम्) तुम से (सुतेषु) प्रेरित ऐश्वर्यों में (सिस्रते) आते हैं। (यत्) जब तुम (सुन्वते) जीवन-यज्ञ करते हुए (यजमानाय) यज्ञ के यजमान 'आत्मा' को (शिक्षथः) सिखाते हो तो (ह) निश्चय ही (यज्ञेयज्ञे) प्रत्येक व्यक्ति रूपी जीवन-यज्ञ में (सवना) ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले क्रियाकाण्ड को (भुरण्यथः) शीघ्र पहुँचाते हो॥१॥

    भावार्थ

    संसार में हर व्यक्ति ही जीवन-यज्ञ कर रहा है--उसका आत्मा है यजमान जो प्रभु से शक्ति, न्याय व प्रेम भावना की प्रेरणा प्राप्त करता है। मनुष्य का प्रत्येक क्रिया-कलाप ईश्वरीय शक्ति, प्रेम तथा न्याय भावना से प्रेरित हो॥१॥

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    विषय

    विद्युत्, जल, मित्र वरुण।

    भावार्थ

    ओषधियों में जिस प्रकार विद्युत् तत्व, और रोगनिवारक जल तत्व दोनों ही पान करने वाले को बल देते और उसके रसों को पुष्ट करते हैं उसी प्रकार हे (इन्द्रा वरुणा) इन्द्र, ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! हे वरुण, दुःखवारक सर्वश्रेष्ट ! सेनापति, राजन् ! ( सुतेषु) उत्पन्न ऐश्वर्यों के निमित्त ( वाम् ) तुम दोनों का ( प्र महे ) उत्तम आदर करता हूं। ( इमानि ) ये ( वां भाग-धेयानि ) आप दोनों के सेवनीय अंश ( प्र सिस्रते ) फैल रहे हैं। ( यज्ञे यज्ञे ह ) प्रत्येक यज्ञ में ( यत् ) जो आप दोनों ( यज मानाय ) यजमान, यज्ञकर्त्ता को ( शिक्षथः ) सहाय प्रदान करते हो और ( सवना भुरण्यथः ) नाना उत्तम ऐश्वर्यो को पुष्ट करते हो इसलिये तुम्हारे देने योग्य अंश हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुपर्णः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१ जगती। २, ३ निचृज्जगती। ४, ५, ७ विराड् जगती। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रावरुणा

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निर्देषता के दिव्यभावो ! (इमानि) = ये शरीर में उत्पन्न सोमकण (वां) = आपके (भागध्यानि) = भाग होते हुए (प्र सिस्रते) = शरीर के अंग-प्रत्यंगों में गतिवाले होते हैं। हे इन्द्रावरुण! मैं (सुतेषु) = इन सोमकणों का सम्पादन होने पर (वाम्) = आपको महे पूजता हूँ। जितेन्द्रियता व निर्देषता का पूजन ही इन सोमकणों को शरीर में सुरक्षित करता है। [२] हे इन्द्रावरुण! आप (यज्ञे यज्ञे) = प्रत्येक यज्ञ में (ह) = निश्चय से (सवना) = ऐश्वर्यों का (भुरण्यथः) = भरण करते हो। (यत्) = जब (सुन्वते यजमानाय) = शरीर में सोम का अभिषव करनेवाले यज्ञशील पुरुष के लिए आप (शिक्षथः) = शक्ति को प्राप्त कराने की कामनावाले होते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय व निद्वेष बनकर शरीर में सोम का रक्षण करें इससे यज्ञशील बनकर ऐश्वर्यशाली व प्रभु के पूजक बनें।

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