ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
उत्त्वा॑ मन्दन्तु॒ स्तोमा॑: कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः । अव॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ जहि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । म॒न्द॒न्तु॒ । स्तोमाः॑ । कृ॒णु॒ष्व । राधः॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । अव॑ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । ज॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा मन्दन्तु स्तोमा: कृणुष्व राधो अद्रिवः । अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । मन्दन्तु । स्तोमाः । कृणुष्व । राधः । अद्रिऽवः । अव । ब्रह्मऽद्विषः । जहि ॥ ८.६४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord almighty, commander, controller and inspirer of clouds, mountains and great men of generosity, may our hymns of adoration win your pleasure. Pray create and provide means and methods of sustenance and progress in life, and cast off jealousies and enmities against divinity, knowledge and prayer, our bond between human and divine.
मराठी (1)
भावार्थ
या सूक्तात सरळ प्रार्थना केलेली आहे. भावही स्पष्ट आहे. आम्ही आपले आचरण शुद्ध ठेवावे व अंत:करणापासून ईश्वराची प्रार्थना करावी, ज्यामुळे आमचा कुणी शत्रू राहता कामा नये. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
इन्द्रः पुनरप्यनेन सूक्तेन स्तूयते प्रार्थ्यते च ।
पदार्थः
हे अद्रिवः=संसारविधातः ! अस्माकम् । स्तोमाः= स्तुतयः । त्वा=त्वाम् । उत्=उत्कृष्टं यथा । मन्दन्तु= प्रसादयन्तु । हे भगवन् ! जगत्पोषणाय । राधः=भोज्यम् । कृणुष्व=कुरु । अपि च ब्रह्मद्विषः अवजहि ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इन्द्रवाच्येश्वर पुनरपि इस सूक्त से स्तुत और प्रार्थित होता है ।
पदार्थ
(अद्रिवः) हे संसाररचयिता महेश ! हमारे (स्तोमाः) स्तव (त्वा) तुझको (उत्) उत्कृष्टरूप से (मन्दन्तु) प्रसन्न करे और तू (राधः) जगत् के पोषण के लिये पवित्र अन्न (कृणुष्व) उत्पन्न कर और (ब्रह्मद्विषः) जो ईश्वर वेद और शुभकर्मों के विरोधी हैं, उनको (अव+जहि) यहाँ से दूर ले जाएँ ॥१ ॥
भावार्थ
इस सूक्त में बहुत सरल प्रार्थना की गई है, भाव भी स्पष्ट ही है । हम लोग अपने आचरण शुद्ध करें और हृदय से ईश्वर की प्रार्थना करें, जिससे हमारे कोई शत्रु न रहने पावें ॥१ ॥
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
( स्तोमाः ) वेद के सूक्त और उत्तम स्तुति-वचन ( त्वा उत् मन्दन्तु ) तुझे अति प्रसन्न करें। हे ( अद्रिवः ) बलवन् ! तू ( राधः कृणुष्व ) ऐश्वर्य का सम्पादन कर। और ( ब्रह्म-द्विषः ) वेद, ईश्वर और अन्न से द्वेष करने वालों को ( अव जहि ) दण्डित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
धन व सत्संग
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! (त्वा) = आपको (स्तोमा:) = हमारे से की जानेवाली स्तुतियाँ (उत् मन्दन्तु) = उत्कर्षेण आनन्दित करें। ये स्तोत्र हमें आपका प्रिय बनाएँ। आप हमारे लिए (राधः कृणुष्व) = कार्यसाधक धनों को कीजिए । [२] (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान से अप्रीतिवाले लोगों को (अवजहि) = हमारे से दूर करिये। हमें ज्ञानी लोगों का ही सम्पर्क प्राप्त हो । मूर्खों के सम्पर्क से हम सदा दूर रहें ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभुस्तवन करते हुए कार्यसाधक धनों को प्राप्त करें और ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें।
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