ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
तरो॑भिर्वो वि॒दद्व॑सु॒मिन्द्रं॑ स॒बाध॑ ऊ॒तये॑ । बृ॒हद्गाय॑न्तः सु॒तसो॑मे अध्व॒रे हु॒वे भरं॒ न का॒रिण॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतरः॑ऽभिः । वः॒ । वि॒दत्ऽव॑सुम् । इन्द्र॑म् । स॒ऽबाधः॑ । ऊ॒तये॑ । बृ॒हत् । गाय॑न्तः । सु॒तऽसो॑मे । अ॒ध्व॒रे । हु॒वे । भर॑म् । न । का॒रिण॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तरोभिर्वो विदद्वसुमिन्द्रं सबाध ऊतये । बृहद्गायन्तः सुतसोमे अध्वरे हुवे भरं न कारिणम् ॥
स्वर रहित पद पाठतरःऽभिः । वः । विदत्ऽवसुम् । इन्द्रम् । सऽबाधः । ऊतये । बृहत् । गायन्तः । सुतऽसोमे । अध्वरे । हुवे । भरम् । न । कारिणम् ॥ ८.६६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 48; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In the yajna of love and non-violence where everything is perfect and soma is distilled, I invoke Indra like Abundance itself, giver of wealth, honour and fulfilment. Singing songs of adoration with energy and enthusiasm for your protection and progress, O devotees, celebrate Indra who brings wealth, honour and excellence at the earliest by fastest means.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्वर: = संसार अध्व+र = ज्यात अनेक मार्ग असतात. जीवन धर्माचे ज्ञान व रचना इत्यादींना जेथे शतश: मार्ग असतात. या शब्दाचा अर्थ आजकाल याग असा केला जातो. याचा बृहत् अर्थ घेतला पाहिजे. याग करण्याचा बोधही हा संसार पाहण्यानेच होतो. आंबा प्रत्येक वर्षी हजारो फळे देतो. एक कूष्मांडबीज शतश: कूष्मांड उत्पन्न करते. या सर्वांचा उद्देश्य काय आहे? एका वृक्षाला इतकी फळे का लागतात? विचार करण्याने याचा उद्देश्य परोपकारच वाटतो. त्या वृक्षाला इतक्या फळाचे प्रयोजन दिसत नाही. ही उदाहरणे मानवी जीवनाला परोपकार व परस्पर साह्याकडे घेऊन जातात. यापासूनच याग इत्यादी विधाने उत्पन्न झालेली आहेत. ॥१॥
टिप्पणी
सोम - वेदात सोमची अधिक प्रशंसा आहे. जरी यात पुष्कळ प्रकारची विघ्ने आहेत, तरीही यात सुखमय पदार्थही पुष्कळ आहेत. त्या आनंदमय पदार्थांचे एक नाव सोम आहे. हा शब्द अनेकार्थक आहे. $ आशय - याचा आशय असा आहे की, हा संसार सुखमय अथवा दु:खमय आहे. तेव्हा आम्ही सर्वांनी मिळून त्या परमेश्वराचीच स्तुती प्रार्थना करावी. आम्हा माणसांचे यानेच कल्याण होते. ।
संस्कृत (1)
विषयः
ईश्वरप्रार्थनायै जनानुपदिशति ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! सबाधः=सबाधे बाधायुक्ते अस्मिन् जगति । ऊतये=रक्षायै । इन्द्रं=परमात्मानम् । तरोभिः=वेगैः । शीघ्रमेव । सेवध्वम् । कीदृशम् । वः=युष्मभ्यम् । विदद्वसुम्=धनप्रापकम् । किं कुर्वन्तः । बृहद्गानं गायन्तः । अहमुपदेष्टाऽपि । भरं+न=भर्तारमिव । कारिणं= कर्तारमीशम् । सुतसोमे=सम्पादितसर्वप्रियवस्तूनि । अध्वरे=अध्वयुक्तेऽस्मिन् संसारे । तमेव । हुवे= आह्वयामि=स्मरामि ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर की प्रार्थना के लिये जनों को उपदेश देते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (सबाधः) भय, रोगादि बाधाओं से युक्त इस संसार में (ऊतये) रक्षा पाने के लिये (बृहद्+गायन्तः) उत्तमोत्तम बृहत् गान गाते हुए (तरोभिः) बड़े वेग से (इन्द्रम्) उस परमपिता जगदीश की सेवा करो, जो (वः) तुम्हारे लिये (विदद्वसुम्) वास वस्त्र और धन दे रहा है । हे मनुष्यों ! मैं उपदेशक भी (भरं न) जैसे स्त्री भर्ता भरणकर्ता स्वामी को सेवती तद्वत् (कारिणम्) जगत्कर्ता उसको (सुतसोमे) सर्वपदार्थसम्पन्न (अध्वरे) नाना पन्थावलम्बी संसार में (हुवे) पुकारता और स्मरण करता हूँ ॥१ ॥
भावार्थ
अध्वर=संसार । अध्व+र । जिसमें अनेक मार्ग हों । जीवन के धर्मों के ज्ञानों के और रचना आदिकों के जहाँ शतशः मार्ग देख पड़ते हैं । इस शब्द का अर्थ आजकल याग किया जाता है । इसका बृहत् अर्थ लेना चाहिये । याग करने का भी बोध इस संसार के देखने से ही होता है । आम्र प्रतिवर्ष सहस्रशः फल देता है । एक कूष्माण्डबीज शतशः कूष्माण्ड पैदा करता है । इस सबका क्या उद्देश्य है, किस अभिप्राय से इतने फल एक वृक्ष में लगते हैं । विचार से परोपकार ही प्रतीत होता है । उस वृक्ष का उतने फलों से कुछ प्रयोजन नहीं दीखता । ये ही उदाहरण मनुष्यजीवन को भी परोपकार और परस्पर साहाय्य की ओर ले जाते हैं, इसी से अनेक यागादि विधान उत्पन्न हुए हैं ॥
टिप्पणी
सोम=वेद में सोम की अधिक प्रशंसा है । आश्चर्य यह है कि यद्यपि इसमें बहुत प्रकार के विघ्न हैं, तथापि इस में सुखमय पदार्थ भी बहुत हैं । उन ही आनन्दप्रद पदार्थ का एक नाम सोम है । यह शब्द भी अनेकार्थक है ॥ आशय−इसका आशय यह है कि यह संसार सुखमय या दुःखमय कुछ हो, हम सब मिलकर उस परमात्मा की स्तुति प्रार्थना किया करें । हम मनुष्यों का इसी से कल्याण है ॥१ ॥
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोग ( स-बाधः ) पीड़ित होकर ( ऊतये ) रक्षा के लिये ( तरोभिः ) तारण करने वाले ज्ञानों से ( वः ) आप लोगों को ( विदद्-वसुम् ) नाना ऐश्वर्यों के प्राप्त कराने वाले, (इन्द्रं) उस सर्वेश्वर्यवान् को ( कारिणं भरं न ) सर्वकर्ता सर्वपोषक पिता के समान जान कर ( बृहत् गायन्तः ) वेदवाणी का गान करते हुए ( सुत-सोमे अध्वरे ) सोम सवनयुक्त यज्ञ में, वा ज्ञानसम्पादन युक्त हिंसारहित विशुद्ध उपासना में प्रार्थना करो। मैं भी उसी को ( हुवे ) प्रार्थना करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
भरं न कारिणम्
पदार्थ
[१] (तरोभिः) = अतिशयेन वेगवाले [बलसम्पन्न ] इन्द्रियाश्वों के द्वारा (वः) = तुम्हारे लिए (विदद्वसुं) = धनों को प्राप्त करानेवाले (इन्द्रं) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सबाधः) = काम-क्रोध आदि का बाधन करनेवाले उपासक (बृहद् गायन्तः) = खूब ही गाते हैं। यह प्रभु का गायन ही उन्हें उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराके वसु के सम्पादन में समर्थ करता है। [२] मैं भी (सुतसोमे) = जिसमें सोम का [वीर्य का] सम्पादन किया गया है, उस (अध्वरे) = जीवनयज्ञ में (हुवे) = उस प्रभु को इस प्रकार पुकारता हूँ, (न) = जैसे (कारिणं) = हितकरणशील (भरं) = भर्ता [पति] को गृह के लोग बुलाते हैं। प्रभु ने ही तो हमारा रक्षण करना है। इस रक्षण के हेतु से ही प्रभु ने शरीर में सोम की स्थापना की है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक को वेगवान् इन्द्रियाश्वों के द्वारा वसु के अर्जन के योग्य बनाते हैं। प्रभु का हम स्मरण करते हैं। प्रभु ही हमारे हित करनेवाले पालक व पोषक हैं।
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