ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
प्र यद्व॑स्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॒ मरु॑तो॒ विप्रो॒ अक्ष॑रत् । वि पर्व॑तेषु राजथ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । वः॒ । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । इष॑म् । मरु॑तः । विप्रः॑ । अक्ष॑रत् । वि । पर्व॑तेषु । रा॒ज॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्वस्त्रिष्टुभमिषं मरुतो विप्रो अक्षरत् । वि पर्वतेषु राजथ ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । वः । त्रिऽस्तुभम् । इषम् । मरुतः । विप्रः । अक्षरत् । वि । पर्वतेषु । राजथ ॥ ८.७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ क्षात्रबलं वर्णयन्नादौ योद्धृगुणान् वर्णयति।
पदार्थः
(मरुतः) हे शीघ्रगतयो योद्धारः ! (यत्) यस्मात् (विप्रः) मेधाविजनः (वः) युष्माकम् (इषम्) इष्यमाणं धनम् (त्रिष्टुभम्) त्रिषु रुध्यमानं (प्राक्षरत्) विगमयति, तेन (पर्वतेषु) दुर्गप्रदेशेषु (विराजथ) विशेषेण राजध्वे ॥१॥
विषयः
प्राणाः स्तूयन्ते ।
पदार्थः
हे मरुतः=प्राणाः । यद्=यदा । विप्रः=मेधावी= प्राणायामाभ्यासी । वः=युष्मभ्यम् । त्रिष्टुभम्+इषम्= रेचकपूरककुम्भकाख्याम् । इषम्=बलम् । प्र+अक्षरत्= प्रददाति । तदा । यूयम् । पर्वतेषु=शिरःसु । विराजथ ॥१ ॥
हिन्दी (4)
विषय
इस सूक्त में क्षात्रबल का वर्णन करते हुए प्रथम योद्धा लोगों के गुण कथन करते हैं।
पदार्थ
(मरुतः) हे शीघ्रगतिवाले योद्धा लोगो ! (यत्) जो (विप्रः) मेधावी मनुष्य (वः) आपके (इषम्) इष्ट धन को (त्रिष्टुभम्) तीन स्थानों में विभक्त कर (प्राक्षरत्) व्यय करता है, इससे आप लोग (पर्वतेषु) दुर्गप्रदेशों में (विराजथ) विशेष करके प्रकाशमान हो रहे हैं ॥१॥
भावार्थ
क्षात्रबल वही वृद्धि को प्राप्त हो सकता है, जिसके नेता विप्र=बुद्धिमान् हों। इस मन्त्र में बुद्धिमान् मन्त्री प्रधान क्षात्रबल का निरूपण किया है। विद्यासभा के लिये, सैनिक बल के लिये, प्रजोपकारी वापी कूप तडाग राजपथादिकों के लिये व्यय करना, यही तीन प्रकार का व्यय है ॥१॥
विषय
इस सूक्त में मरुन्नामधारी प्राणों की स्तुति की जाती है ।
पदार्थ
(मरुतः) हे आन्तरिक प्राणो ! (यद्) जब (विप्रः) मेधावी योगाभ्यासी जन (वः) आपको (त्रिष्टुभम्+इषम्) रेचक, पूरक और कुम्भक तीन प्रकार के (इषम्) बल को (प्र+अक्षरत्) देता है (पर्वतेषु) तब आप मस्तिष्कों पर (विराजथ) विराजमान होते हैं ॥१ ॥
भावार्थ
यहाँ मरुत् शब्द से सप्तप्राणों का ग्रहण है−नयनद्वय, कर्णद्वय, घ्राणद्वय और एक जिह्वा । इन सातों में व्याप्त वायु का नाम मरुत् है, अतएव सप्त मरुत् का वर्णन अधिक आता है । एक-२ की वृत्ति मानो सात सात हैं, अतः ७x७=४९ मरुत् माने जाते हैं, मरुत् नाम यहाँ प्राणों का ही है, इसमें एक प्रमाण यह है कि इन्द्र का नाम मरुत्वान् है । इन्द्र=जीवात्मा । इसका साथी यह प्राण है, अतः इन्द्र मरुत्वान् कहलाता है । यह अध्यात्म अर्थ है, भौतिकार्थ में मरुत् शब्द वायुवाची है, लौकिकार्थ में मरुत् शब्द वैश्यवाची और सेनावाचक होता है । भावार्थ इसका यह है कि प्रथम योगाभ्यास के लिये विप्र अर्थात् परम बुद्धिमान् बनो, पश्चात् इन नयनादि इन्द्रियों को वश में करने के लिये प्राणायाम करो, इस क्रिया से तुम्हारा शिर अतिशय बलिष्ठ और ज्ञान-विज्ञान सहित होगा, हे मनुष्यों ! उस योगरत शिर से प्राणियों का और अपना उद्धार करो ॥१ ॥
विषय
मरुद्गण। वायुओं के तुल्य बलवान् वीरों और विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्यों का उपदेश।
भावार्थ
जिस प्रकार जब ( मरुतः पर्वतेषु वि राजथ ) वायुगण मेघों में विशेष विद्युत् दीप्ति उत्पन्न करते हैं तब ( विप्रः इषं अक्षरत् ) रूप से विशेष जल से पूर्ण मेघ वृष्टि को ( त्रिष्टुभम् ) पृथिवी के प्रति सेचन करता है। इसी प्रकार हे ( मरुतः ) प्राणो ! ( यत् ) जब ( विप्रः ) पुरुष ( त्रिष्टुभम् ) तीन कालों में ( इषं ) अन्न रस को ( प्र अक्षरत् ) अच्छी प्रकार देह में सेचन करता है तब हे प्राणो ! तुम ( पर्वतेषु ) पर्व अर्थात् पोरुओं से युक्त देह के अंगों में (वि राजथ) विराजते हो । अथवा—हे ( मरुतः ) वीर मनुष्यो ! ( विप्रः ) ज्ञान और ऐश्वर्य को पूर्ण करने वाला विद्वान् राजा ( व: ) आप लोगों की ( त्रिष्टुभम् इषम् ) क्षात्रबल से युक्त सेना को ( प्र अक्षरत् ) आगे बढ़ाता है तब आप लोग ( पर्वतेषु ) पर्वतों अर्थात् पर्व पर्व, वा खण्ड २ युक्त सैन्य दलों में विशेष रूप से सुशोभित होओ !
टिप्पणी
त्रिष्टुप्—त्रिष्टुप् इन्द्रस्य वज्रः। ऐ० २ । २ । इन्द्रस्त्रिष्टुप् । श० ६ । । ६ । २ । ७ ॥ इन्द्रियं वै त्रिष्टुप् । तै० ३ । ३ । ९ । ८ ॥ वीर्यं वै त्रिष्टुप् । ऐ० १ । २ ॥ ओजो वा इन्द्रियं, वीर्यं वै त्रिष्टुप् । ऐ० ॥ ५ ॥ उरः स्त्रिष्टुप् । श०८ । ६ । २ । ७ ॥ क्षत्रं वै त्रिष्टुप् । कौ० ३ १५ ॥ त्रिष्टुप हि इयं पृथिवी ॥ श० २ । २ । १० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
त्रिष्टुभ् इष्
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (यद्) = जब (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला व्यक्ति (वः) = आपके द्वारा (त्रिष्टुभम्) = ' काम-क्रोध-लोभ' तीनों को रोक देनेवाली [त्रि स्तुभ्] (इषम्) = प्रभु प्रेरणा को (प्र अक्षरत्) = अपने में प्रकर्षेण संचलित करता है, अर्थात् प्राणायाम द्वारा शुद्ध हृदय में प्रभु प्रेरणा को सुनने का प्रयत्न करता है, तो आप इन (पर्वतेषु) = [पर्व पूरणे] अपना पूरण करनेवाले लोगों में (विराजथ) = विशेषरूप से शोभायमान होते हो। इन प्राणसाधकों में प्राण विशिष्ट शोभावाले होते हैं। अर्थात् इनका जीवन बहुत ही सुन्दर बन जाता है। [२] प्राणसाधना 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' तीनों को क्रमशः नीरोग, निर्मल व तीव्र बनाती है। यही पुरुष प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनता है। प्रभु प्रेरणा उसके 'काम-क्रोध-लोभ' आदि असुरभावों को विनष्ट करनेवाली होती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधन से पवित्र हुए हुए हृदयों में प्रभु प्रेरणा सुनाई पड़ती है। वह इसके [काम-क्रोध-लोभरूप] तीनों दोषों को रोकनेवाली होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Maruts, warriors of the nation, when the vibrant controllers of the nation’s finances in yajnic management canalise national expenditure into three streams, physical, mental and spiritual, then you rise to the clouds and shine.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याचा नेता विप्र = बुद्धिमान असतो. तेथेच क्षात्रबल वाढू शकते. या मंत्रात बुद्धिमान मंत्री, प्रधान व क्षात्रबलाचे निरूपण केलेले आहे. विद्यासभेसाठी सेनाबलासाठी व प्रजेवर उपकार करण्यासाठी, वापी, कूप, तडाग, राजपथ इत्यादीसाठी खर्च करणे हे तीन प्रकारचे व्यय आहेत. ॥१॥
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