ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः । विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । राजा॑ । च॒र्षणी॒नाम् । याता॑ । रथे॑भिः । अध्रि॑ऽगुः । विश्वा॑साम् । त॒रु॒ता । पृत॑नानाम् । ज्येष्ठः॑ । यः । वृ॒त्र॒ऽहा । गृ॒णे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो राजा चर्षणीनां याता रथेभिरध्रिगुः । विश्वासां तरुता पृतनानां ज्येष्ठो यो वृत्रहा गृणे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । राजा । चर्षणीनाम् । याता । रथेभिः । अध्रिऽगुः । विश्वासाम् । तरुता । पृतनानाम् । ज्येष्ठः । यः । वृत्रऽहा । गृणे ॥ ८.७०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
I adore Indra, lord supreme, who rules the people, and who is the irresistible and universal mover by waves of cosmic energy, saviour of all humanity, supreme warrior and winner of cosmic battles of the elemental forces and who destroys the evil, darkness and poverty of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्व धाता, विधाता व पिता पालक आहे, त्याची पूजा करा. ॥१॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरपीन्द्रस्य महिमानं दर्शयति ।
पदार्थः
यः=इन्द्रवाच्येशः । चर्षणीनां=निखिलिप्रजानाम् । राजास्ति । यः खलु । रथैः रमणीयैः पदार्थैः । सह याता=गन्तास्ति । यः । अध्रिगुः=अतिशयरक्षिता । पुनः । विश्वासां=सर्वासाम् । पृतनानां=तरुतां=तारकः । ज्येष्ठः । यो वृत्रहा । तमिन्द्रम् । गृणे=प्रार्थयामि ॥१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनरपि इन्द्र की महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो इन्द्रवाच्य परमात्मा (चर्षणीनाम्) समस्त प्रजाओं का (राजा) राजा है, जो (रथैः) परम रमणीय इन सकल पदार्थों के साथ (याता) व्यापक है और (अध्रिगुः) अतिशय रक्षक है । रक्षा करने में जो विलम्ब नहीं करता । (विश्वासाम्+पृतनानाम्) जगत् की समस्त सेनाओं का विजेता है, (ज्येष्ठः) सर्वश्रेष्ठ और (वृत्रहा) निखिल विघ्नों का हन्ता है, (गृणे) उस ईश की मैं प्रार्थना स्तुति और गुण-गान करता हूँ ॥१ ॥
भावार्थ
वह सर्वधाता, विधाता और पिता पालक है, उसकी पूजा करो ॥१ ॥
विषय
सर्वोपरि नायक शासक का वर्णन।
भावार्थ
( यः चर्षणीनां राजा ) जो सब मनुष्यों में से सूर्यवत् दीप्तिमान् ( रथेभिः याता ) रथों से आक्रमण या प्रयाण करने हारा, ( अध्रिगुः ) जिसके आगे बढ़ने को कोई न रोक सके, ऐसा सर्वोपरि नायक, (यः विश्वासां पृतनानां ) जो समस्त सेनाओं का नाश करने वाला, ( ज्येष्ठः ) सबसे बड़ा, ( वृत्रहा ) विघ्नकारी दुष्टों को दण्ड देने वाला है मैं (गृणे) उसकी स्तुति करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'ज्येष्ठः वृत्रहा' प्रभु
पदार्थ
[१] मैं उस प्रभु का (गृणे) = स्तवन करता हूँ (यः) = जो (चर्षणीनां राजा) = श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीप्त बनानेवाला है। (रथेभिः याता) = शरीररूप रथों से हमें प्राप्त होनेवाला है, अर्थात् उत्तम शरीररूप रथों को प्राप्त करता है। (अध्रिगुः) = अधृतगमन वाला है। [२] ये प्रभु ही (विश्वासां) = सब (पृतनानां) = शत्रुसैन्यों के (तरुता) = तैर जानेवाले हैं। वे प्रभु (ज्येष्ठः) = प्रशस्यतम हैं, (यः) = जो (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें वासनारूप शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ करते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम शरीररथ प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं।
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