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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ह॒विष्कृ॑णुध्व॒मा ग॑मदध्व॒र्युर्व॑नते॒ पुन॑: । वि॒द्वाँ अ॑स्य प्र॒शास॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒विः । कृ॒णु॒ध्व॒म् । आ । ग॒म॒त् । अ॒ध्व॒र्युः । व॒न॒ते॒ । पुन॒रिति॑ । वि॒द्वान् । अ॒स्य॒ । प्र॒ऽशास॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हविष्कृणुध्वमा गमदध्वर्युर्वनते पुन: । विद्वाँ अस्य प्रशासनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हविः । कृणुध्वम् । आ । गमत् । अध्वर्युः । वनते । पुनरिति । विद्वान् । अस्य । प्रऽशासनम् ॥ ८.७२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come, devotees of yajna, celebrants of Agni: Prepare the havi for oblation, let the high priest come, he knows the ministration of this yajna, let him serve Agni again.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञाची सुरुवात करण्यापूर्वी संपूर्ण सामग्री एकत्रित करून लोकांना बोलावून अध्वर्यू ईश्वराची स्तुती प्रार्थना करावी. ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    यज्ञायाऽऽनियोजयति ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! यज्ञार्थम् । हविः=हविरादि सर्वं वस्तु । कृणुध्वम्=संचिनुध्वम् । जनता । आगमत्=आगच्छतु । अध्वर्युः=प्रधानयाजकः । पुनः=पुनः । पुनः । वनते=वनतां=ईशमिच्छतु । यः । अस्य यज्ञस्य प्रशासनम् । विद्वान्=जानन् वर्तते ॥१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    यज्ञ के लिये मनुष्य को नियोजित करता है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! यज्ञ के लिये (हविः) घृत, शाकल्य, समिधा और कुण्ड आदि वस्तुओं की (कृणुध्वम्) तैयारी करो । (आगमत्) इसमें सकल समाज आवे । (अध्वर्युः) मुख्य, प्रधान याजक (पुनः+वनते) पुनः-पुनः परमात्मा की कामना करे, जो (अस्य+प्रशासनम्) इस यज्ञ का प्रशासन=विधान (विद्वान्) जानते हैं, वे ईश्वर की कामना करें ॥१ ॥

    भावार्थ

    यज्ञारम्भ के पूर्व समग्र सामग्री एकत्रित कर लोगों को बुला अध्वर्यु ईश्वर की स्तुति प्रार्थना प्रथम करे ॥१ ॥

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    भावार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! ( हविः कृणुध्वम् ) हविष् ज्ञान आदि का सम्पादन अन्न वा साधन करो ( अध्वर्यु: आगमत् ) अध्वर, हिंसा भाव से रहित यज्ञ का संचालक आवे। और वह ( विद्वान् ) विद्वान् पुरुष ही ( अस्य ) इस स्वाध्यायादि यज्ञ के ( प्र-शासनं वनते ) उत्तम शासन का पद प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अध्वर्यु

    पदार्थ

    [१] हे मनुष्यो ! (हविः कृणुध्वम्) = हवि को सम्पादित करो - जीवन में त्यागपूर्वक अदन वाले बनो। [हु दानादनयोः] । प्रभु का वास्तविक पूजन इस हवि के द्वारा ही होता है। 'कस्मै देवाय हविषा विधेम '। हवि के होने पर ही (आगमत्) = वे प्रभु आते हैं। प्रभु की प्राप्ति यज्ञशील व्यक्ति को ही होती है। [२] (पुनः) = फिर (अध्वर्युः) = यज्ञशील व्यक्ति (अस्य) = इस प्रभु की (प्रशासनं) = आज्ञा को (विद्वान्) = जानता हुआ (वनते) = यज्ञ का संभजन करता है-यज्ञों को करता हुआ ही हो तो वह प्रभु का उपासन कर पाता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः '।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हवि के द्वारा प्रभु का उपासन करें।

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