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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 6
    ऋषिः - एकद्यूर्नौधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अवा॑ नो वाज॒युं रथं॑ सु॒करं॑ ते॒ किमित्परि॑ । अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । नः॒ । वा॒ज॒ऽयुम् । रथ॑म् । सु॒ऽकर॑म् । ते॒ । किम् । इत् । परि॑ । अ॒स्मान् । सु । जि॒ग्युषः॑ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवा नो वाजयुं रथं सुकरं ते किमित्परि । अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । नः । वाजऽयुम् । रथम् । सुऽकरम् । ते । किम् । इत् । परि । अस्मान् । सु । जिग्युषः । कृधि ॥ ८.८०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Protect our chariot racing for victory. Every thing is easy and possible for you every way, is there anything beyond? Pray justify our ambition for victory and make it possible.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने आमच्या रथाला विजयी व आम्हाला विजेता बनवावे. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! वाजयुं=विजयाभिलाषिणम् । नः=अस्माकं रथम् । अव=रक्ष । ते=तव । किमित्=किमपि सर्वं परि परितः । सुकरं=तव कर्तुमशक्यं न किञ्चिदस्ति । तस्माद् अस्मान् जिग्युषः=जेतॄन् । सुकृधि=सुष्ठु कुरु ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (नः) हम लोगों के (वाजयुं) विजयाभिलाषी (रथं) रथ को (अव) बचा । (ते) तुम्हारे लिये (किं+इत्) सर्व कर्म (परि) सर्व प्रकार से (सुकरं) सहज है अर्थात् तुम्हारे लिये अशक्य कुछ नहीं, इस हेतु महासंग्राम में (अस्मान्) हम लोगों को (जिग्युषः) विजेता (सुकृधि) अच्छे प्रकार कीजिये ॥६ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर हम लोगों के रथ को विजयी और हमको विजेता बनावे ॥६ ॥

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    विषय

    राजावत् प्रभु से प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे राजन् ! प्रभो ! स्वामिन् ! तू ( नः ) हमारे ( वाजयुं ) बल, वेग, वीर्य, ऐश्वर्य से युक्त ( रथं ) रथवत् देह की (अव) रक्षा कर। ( इत् परि ते सुकरं किम् ) इससे अधिक और तेरे लिये क्या उत्तम और सुखपूर्वक करने का कार्य है ? तू ( अस्मान् ) हमें ( जिग्युषः सु कृधि ) विजयी भली प्रकार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'रक्षक व विजयप्रापक' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (नः) = हमारे (वाजयुम्) = शक्ति को अपने साथ जोड़नेवाले (रथम्) = इस शरीररथ को (अवा) = रक्षित करिये। (ते) = आपके लिये (परि) = चारों ओर दिखनेवाला यह कर्त्तव्य समूह (किमित्) = क्या ही (सुकरम्) = सुगमता से करने योग्य है, आप हमारे इन शरीररथों का अनायास ही रक्षण कर सकते हैं। [२] हे प्रभो ! आप (अस्मान्) = हमें (सुजिग्युषः) = उत्तम विजयशील (कृधि) = करिये। आपकी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर हम सदा विजयी बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शरीररथों का रक्षण करते हैं-प्रभु के लिये यह बात अनायास ही साध्य है। प्रभु हमें विजयी बनायें।

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