ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 7
इन्द्र॒ दृह्य॑स्व॒ पूर॑सि भ॒द्रा त॑ एति निष्कृ॒तम् । इ॒यं धीॠ॒त्विया॑वती ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । दृह्य॑स्व । पूः । अ॒सि॒ । भ॒द्रा । ते॒ । ए॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । इ॒यम् । धीः । ऋ॒त्विय॑ऽवती ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र दृह्यस्व पूरसि भद्रा त एति निष्कृतम् । इयं धीॠत्वियावती ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । दृह्यस्व । पूः । असि । भद्रा । ते । एति । निःऽकृतम् । इयम् । धीः । ऋत्वियऽवती ॥ ८.८०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, pray strengthen us as determined on good works. You are the stronghold of protection and giver of fulfilment. This conscientious prayer, in truth and according to time and season reaches you. Pray help us reach the target.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवांचा कल त्या परमेश्वराकडे असतो ही स्वाभाविक गोष्ट आहे. त्यासाठी प्रत्येक विद्वानाचे संपूर्ण शुभकर्म त्याच्याकडेच नेणारे व त्याच उद्देशाने होते. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । अस्मान् शुभकर्मसु । दृह्यस्व=दृढीकुरु । त्वं पूः=मनोरथानां पुरकोऽसि । निष्कृतम्=निष्कर्त्तारम् । ते=त्वाम् । इयं+भद्रा=कल्याणी । ऋत्वियावती= समयानुकूला । धीः=अस्माकं स्तुतिः । एति=प्राप्नोति ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! हम लोगों को शुभकर्मों में (दृह्यस्व) दृढ़ कर, क्योंकि तू (पूः+असि) भक्तों के मनोरथ का पूरक है और (निष्कृतम्) सबके भाग्य को स्थिर करनेवाले (ते) तेरी ओर हम लोगों की (इयं+ऋत्वियावती) यह सामयिक (धीः) स्तुति प्रार्थना और शुभकृपा (एति) जाती है ॥७ ॥
भावार्थ
यह स्वाभाविक बात है कि जीवों का झुकाव उस परमात्मा की ओर है, इसलिये प्रत्येक विद्वान् का समग्र शुभकर्म उसी की ओर और उसी के उद्देश्य से होता है ॥७ ॥
विषय
राजा वा प्रभु की दुर्ग से तुलना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (दृह्यस्व) दृढ़ हो, और तू (भद्रा पू: असि) सुखदायी, पुर, प्रकोट या दुर्ग के समान पालक, रक्षक है। (ते) तेरा ( इयं ) यह ( ऋत्वियावती ) काल पर फल देने वाला ( धीः ) कर्म भी ( निष्कृतं एति ) सफलता को प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पूरणकर्ता 'पू: ' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (दृह्यस्व) = आप हमें दृढ़ बनाइये । (पूः असि) = आप हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। [२] (इयम्) = यह (ऋत्वियावती) = ऋतु - ऋतु में होनेवाली - समय-समय पर होनेवाली (भद्रा) = कल्याणकारिणी (धीः) = बुद्धिपूर्वक की गई स्तुति (ते) = आपके (निष्कृतम्) = संस्कृत हृदयरूप स्थान में एति प्राप्त होती है। हम हृदयस्थित आपका स्तवन करते हैं। आपने ही तो हमें दृढ़ बनाना है- आपने ही हमारा पूरण करना है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें दृढ़ बनाते हैं और हमारा पूरण करते हैं।
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