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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रेष्ठं॑ वो॒ अति॑थिं स्तु॒षे मि॒त्रमि॑व प्रि॒यम् । अ॒ग्निं रथं॒ न वेद्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रेष्ठ॑म् । वः॒ । अति॑थिम् । स्तु॒षे । मि॒त्रम्ऽइ॑व । प्रि॒यम् । अ॒ग्निम् । रथ॑म् । न । वेद्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम् । अग्निं रथं न वेद्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रेष्ठम् । वः । अतिथिम् । स्तुषे । मित्रम्ऽइव । प्रियम् । अग्निम् । रथम् । न । वेद्यम् ॥ ८.८४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I sing and celebrate the glories of Agni, lord omniscient, light and leader of the world, dearest and most welcome as an enlightened guest, loving as a friend, who like a divine harbinger, reveals the light of knowledge to us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमप्रभू अंत:करणात प्रकट होतो. तो माझा अतिथी आहे. त्याची प्रादुर्भूत होण्याची वेळ निश्चित नाही. माझे शरीर माझा ‘रथ’ आहे व प्राण माझा मित्र आहे. हे मला प्रिय आहेत; परंतु परमात्मा या सर्वात अधिक प्रिय आहे. मी त्याचे गुणगान करतो. ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मेरे साथी उपासक गणो! मैं (वः) तुम्हारे और मेरे (मित्रम् इव प्रियम्) मित्र निःस्वार्थ स्नेही के समान प्रिय, (अतिथिम्) समय निश्चित करके प्राप्त न होने वाले, इसीलिये (प्रेष्ठम्) सर्वाधिक प्रिय (रथं न) 'रथ' के तुल्य सकल पदार्थों के (वेद्यम्) पहुँचाने वाले तथा उनका ज्ञान कराने वाले (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप प्रभु के (स्तुषे) गुण गाता हूँ॥१॥

    भावार्थ

    प्रभु अन्तःकरण में प्रकटते हैं--वे मेरे अतिथि हैं, उनके प्रादुर्भूत होने का समय निश्चित नहीं, मेरा शरीर ही मेरा 'रथ' है और 'प्राण' मेरा सखा है, ये मुझे प्रिय हैं; परन्तु प्रभु इन सबसे अधिक प्रिय हैं। मैं उनका गुण गाता हूँ॥१॥

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    विषय

    अग्रणी नायक के गुण और कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं ( वः ) आप लोगों के प्रति और आप लोगों में से ( प्रेष्ठं ) सब से अधिक, सर्वप्रिय, (अतिथिम्) अतिथिवत् पूज्य ( मित्रम् इव ) मित्र के समान ( प्रियम् ) प्रीतिकारक, ( रथं न ) रथ के समान ( वेद्यम् ) धन जन, देशान्तर प्राप्त करने के उत्तम साधन वा उपदेश वचन के समान रम्य और ज्ञानप्रद ( अग्निं ) अग्निवत् अग्रणी, नायक, विद्वान् पुरुष की ( स्तुषे ) स्तुति करता हूं। उक्त गुणों से युक्त पुरुष को नायक वा अग्नि पद के लिये प्रस्तुत करता हूं। अग्रणी नायक में इन गुणों का होना आवश्यक है कि वह सर्वप्रिय, पूज्य, सर्वस्नेही और लक्ष्य तक पहुंचाने में समर्थ हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना काव्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् गायत्री। २ विराड् गायत्री। ३,६ निचृद् गायत्री। ४, ५, ७—९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'प्रेष्ठ अतिथि' का स्तवन

    पदार्थ

    [१] मैं (वः) = सब के (प्रेष्ठम्) = प्रियतम उस प्रभु को स्तुषे =स्तुत करता हूँ। उस प्रभु को जो अतिथिम् = हमारे हित के लिये हमें निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं [अत सातत्यगमने ] । जो मित्रं इव प्रियम् = एक मित्र के समान प्रिय हैं - उत्तम प्रेरणाओं को देते हुए प्रीणित करनेवाले हैं। [२] उस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ जो अग्निम् अग्रेणी हैं-हमें निरन्तर आगे ले चलनेवाले हैं। रथं न वेद्यम् = इस जीवन-यात्रा में रथ के समान जानने योग्य हैं। प्रभु के द्वारा ही हमारी जीवन-यात्रा पूर्ण हो सकेगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे प्रियतम निरन्तर हमारे हित के लिये गतिवाले मित्र हैं। वे ही हमें आगे ले चलनेवाले व हमारी जीवन-यात्रा को पूर्ण करनेवाले रथ के समान हैं। इन प्रभु का ही हम स्तवन करें।

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