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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नोधा देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं॒ वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः । अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । वः॒ । द॒स्मम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । वसोः॑ । म॒न्दा॒नम् । अन्ध॑सः । अ॒भि । व॒त्सम् । न । स्वस॑रेषु । धे॒नवः॑ । इन्द्र॑म् । गीः॒ऽभिः । न॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । वः । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसोः । मन्दानम् । अन्धसः । अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनवः । इन्द्रम् । गीःऽभिः । नवामहे ॥ ८.८८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We invoke and call upon Indra eagerly as cows call for their calves in the stalls, and with songs of adoration over night and day we glorify him, lord glorious, omnipotent power fighting for truth against evil forces, and exhilarated with the bright soma of worship offered by celebrant humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जितक्या स्नेहाने वासराची माता गोठ्यात जाऊन वात्सल्य दर्शविते तितक्याच प्रेम व तन्मयतेने उपासकाने परम ऐश्वर्यवान परमेश्वराचे गुणगान केले पाहिजे. माता व बालकाचा पारस्पारिक स्नेह दिव्य असतो. ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे उपासक जनो! (वः) तुम्हारे तथा अपने (तम्) उस (ऋतीषहम्) शत्रुओं एवं शत्रुभूत भावनाओं पर विजय प्राप्त कराने वाले (दस्म) दर्शनीय (इन्द्रम्) प्रभु की (गीर्भिः) वाणियों से (अभिनवामहे) स्तुति करते हैं ऐसे ही जैसे कि (स्वसरेषु) गोगृहों में (धेनवः) गौएँ (वसोः अन्धसः मन्दानम्) बसाने वाले अन्न से तृप्त हो (वत्सम्) अपने बछड़े को (गीर्भिः) अपनी वाणियों द्वारा बुलाती हैं॥१॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् प्रभु का गुणगान उपासक उतने ही प्रेम तथा तन्मयता से करे कि जितने स्नेह से बछड़े का आह्वान उसकी माता गोष्ठ में पहुँचकर करती है। माता एवं उसके बालक में पारस्परिक दिव्य स्नेह होता है॥१॥

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    विषय

    सेनापति इन्द्र का वर्णन।

    भावार्थ

    हे प्रजाजनो ! ( अन्धसः ) अन्नवत् उपभोग्य ( वसोः ) राष्ट्र में बसे प्रजा जन और ( वसोः ) धन राशि से ( मन्दानम् ) अति हर्षित ( तं ) उस ( दस्मम् ) शत्रुनाशक और ( ऋति-सहं ) शत्रुओं के पराजयकारी ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् सेनापति की हम लोग ( स्वसरेषु ) स्वयं वा सुख से बीतने वाले दिनों में, गोष्ठों में ( अभिवत्सं न धेनवः ) वच्छे के प्रति गौओं के समान ( स्वसरेषु ) सब दिनों ( गीर्भिः नवामहे ) वाणियों से स्तुति करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः—१, ३ बृहती। ५ निचृद बृहती। २, ४ पंकिः। ६ विराट् पंक्ति:॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दस्मम् ऋतीषहम्

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों के द्वारा (स्वसरेषु अभिर्नवामहे) = दिनों में [सूर्यकर्तृकेषु दिवसेषु नि० ] प्रातः-सायं [अभि] स्तुत करते हैं- प्रभु की ओर जाते हैं, प्रभु की उपासना में बैठते हैं। इस प्रकार प्रभु की ओर जाते हैं (न) = जैसे स्वसरेषु [सुष्ठु अस्यन्ते प्रेर्यन्ते गावः अत्र ] गोष्ठों में (धेनवः) = गौवें (वत्सम्) = बछड़े की ओर जाती हैं। जिस प्रकार प्रेम से भरी हुई गौवें जाती हैं, उसी प्रकार प्रेम से परिपूर्ण हृदयोंवाले हम प्रभु की ओर जानेवाले बनें। [२] उस प्रभु की ओर हम जायें, जो (वः दस्यम्) = तुम सबके दुःखों का उपक्षय करनेवाले हैं। (ऋतीबहम्) = [ऋतयो बाधकाः शत्रवः] काम-क्रोध आदि बाधक शत्रुओं का पराभव करनेवाले (वसोः) = हमारे निवासों को उत्तम बनानेवाले (अन्धसः) = सोम [वीर्य] के द्वारा (मन्दानम्) = हमें हैं। आनन्दित करनेवाले हैं। वस्तुतः प्रभु काम-क्रोध आदि को विनष्ट करके हमें सोमरक्षण द्वारा सब दुःखों से दूर व आनन्द से परिपूर्ण जीवनवाला बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रातः - सायं प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमारे अन्दर सोम का रक्षण करते हैं और हमारे दुःखों को दूर करके हमें आनन्दमय जीवनवाला बनाते हैं।

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