ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
आ त्वा॒ गिरो॑ र॒थीरि॒वास्थु॑: सु॒तेषु॑ गिर्वणः । अ॒भि त्वा॒ सम॑नूष॒तेन्द्र॑ व॒त्सं न मा॒तर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । गिरः॑ । र॒थीःऽइ॑व । अस्थुः॑ । सु॒तेषु॑ । गि॒र्व॒णः॒ । अ॒भि । त्वा॒ । सम् । अ॒नू॒ष॒त॒ । इन्द्र॑ । व॒त्सम् । न । मा॒तरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा गिरो रथीरिवास्थु: सुतेषु गिर्वणः । अभि त्वा समनूषतेन्द्र वत्सं न मातर: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । गिरः । रथीःऽइव । अस्थुः । सुतेषु । गिर्वणः । अभि । त्वा । सम् । अनूषत । इन्द्र । वत्सम् । न । मातरः ॥ ८.९५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, adorable lord of glory, when the soma sense of life’s beauty and meaning is realised, let our voices of adoration reach you fast as a charioteer, and as mothers out of love incline to their children, so let our voices too closely abide with you.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासक जेव्हा सृष्टिकर्त्याद्वारे सृष्ट पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करतो तेव्हा तो त्याच्या महानतेचा यथार्थ प्रशंसक बनतो. तेव्हा तो त्यालाच आपले गंतव्य लक्ष्य मानू लागतो व त्याचे गुणकीर्तन करत त्याच्या प्राप्तीचा प्रयत्न करू लागतो. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (गिर्वणः) वेदवाणियों से सुसंस्कृत हमारे द्वारा की गई प्रार्थनाओं से सेवित प्रभु! (सुतेषु) [विद्या सुशिक्षा आदि द्वारा] सृष्टि के पदार्थों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने पर (रथीः इव) प्रशस्त वाहन साधनवाले यात्री के जैसी मेरी (गिरः) वाणियाँ (त्वा) आप में (आ अस्थुः) सम्यक्तया स्थित हैं। हे (इन्द्र) प्रभु (मातरः) माताएं स्नेहसहित जैसे (वत्सं न) अपने प्रिय शिशु के (अभि) प्रति (सम् अनूषत) झुकती हैं वैसे ही मेरी वाणी (त्वा) आप के प्रति नम्र हो आपका गुणगान करें॥१॥
भावार्थ
उपासक जब प्रभु द्वारा विरचित पदार्थों का ज्ञान पा लेता है तो वह उसकी महत्ता की यथार्थ प्रशंसा करता है। तब वह उसी को अपना गन्तव्य लक्ष्य मानने लगता है और उसका गुणगान करता हुआ उसकी प्राप्ति हेतु यत्न करने लग जाता है॥१॥
विषय
परमेश्वर के गुणों का स्तवन। पक्षान्तर में राजा के कर्तव्य।
भावार्थ
( मातरः वत्सं न ) माताएं जिस प्रकार अपने बच्चे को लक्ष्य कर ( सम् अनूषत ) अच्छी प्रकार उस की गुणस्तुति किया करती हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( गिर्वणः ) वाणियों को स्वीकार और वाणियों द्वारा स्तवन करने हारे ! ( गिरः ) उत्तम विद्वान् स्तुतिकर्त्ता जन ( त्वा अभि सम् अनूषत् ) तुझे लक्ष्यकर तेरी ही स्तुति करते हैं। ( रथीः इव ) रथवान् क्षिप्रगामी पुरुष के समान ( सुतेषु ) ऐश्वर्यों वा अन्नादि के प्राप्तयर्थ ( त्वा ) तेरी ओर ही ( गिरः ) सब विद्वान् एवं सब वाणियां ( आ अस्थुः ) आ रही हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिरश्ची ऋषिः॥ इन्द्रा देवता॥ छन्द:—१—४, ६, ७ विराडनुष्टुप्। ५, ९ अनुष्टुप्। ८ निचृदनुष्टुप्॥
विषय
रथीः इव
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (गिरः) = ये ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुतिवाणियाँ (त्वा आ अस्थुः) = आपको प्राप्त होती हैं। ये हमें आपकी ओर लानेवाली होती हैं। हे (गिर्वणः) = स्तुतिवाणियों से सम्भजनीय प्रभो ! (सुतेषु) = शरीर में सोम का सम्पादन होने पर आप हमारे लिये (रथीः इव) = रथवान् की तरह होते हैं, एक रथवान् की तरह आप ही हमें लक्ष्य -स्थान पर पहुँचाते हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! ये उपासक (त्वा) = आपको (अभि) = दिन के दोनों ओर प्रातः व सायं (समनूषत) = स्तुत करते हैं, (न) = जैसे (मातर:) = धेनुएँ (वत्सम्) = बछड़े की प्रति प्रेम से हम्भाख को करती हैं। ये उपासक भी प्रेम से स्तुति - वचनों का उच्चारण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रातः - सायं प्रेम से किया गया यह प्रभु-स्तवन हमें लक्ष्य-स्थान पर पहुँचानेवाला होगा।
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