ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 12
त्वां शु॑ष्मिन्पुरुहूत वाज॒यन्त॒मुप॑ ब्रुवे शतक्रतो । स नो॑ रास्व सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । शु॒ष्मि॒न् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । वा॒ज॒यन्त॑म् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । सः । नः॒ । रा॒स्व॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां शुष्मिन्पुरुहूत वाजयन्तमुप ब्रुवे शतक्रतो । स नो रास्व सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । शुष्मिन् । पुरुऽहूत । वाजयन्तम् । उप । ब्रुवे । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । सः । नः । रास्व । सुऽवीर्यम् ॥ ८.९८.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of cosmic energy universally invoked, hero of infinite acts of kindness and creation, giver of sustenance and victory, we pray in silent sincerity of conscience, bring us and bless us with noble strength and vitality of body and mind and creativity of vision and imagination.
मराठी (1)
भावार्थ
मनन, ध्यान, निदिध्यासनाद्वारे परमेश्वराचे सान्निध्य प्राप्त झालेल्या आत्म्याला हा अनुभव येतो, की परमेश्वर मला सत्यासत्याचे ज्ञान प्रदान करील. त्यावेळीही साधकाने हे विसरता कामा नये, की परमेश्वराकडून प्राप्त झालेल्या बलवीर्याचा उपयोग सर्वांच्या कल्याणासाठी व्हावा, दुसऱ्यांना त्रास देण्यासाठी नसावा. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शुष्मिन्) बलशाली! (शतक्रतो) अपार ज्ञान तथा कर्मशक्ति युक्त, (पुरुहूत) अनेकों से प्रेमपूर्वक बुलाए गये प्रभु! (वाजयन्तम्) सत्यासत्य का ज्ञान कराते हुए (त्वाम्) आप से (उपब्रुवे) याचना करता हूँ कि (सः) वह आप (नः) हमें (सुवीर्यम्) शुभ वीर्य व बल (रास्व) प्रदान करें॥१२॥
भावार्थ
मनन, ध्यान तथा निदिध्यासन के द्वारा प्रभु के सान्निध्य में प्राप्त आत्मा अनुभव करता है कि भगवान् अब मुझे सत्यासत्य का ज्ञान देंगे। उस समय भी साधक यह न भूले कि वही बल-वीर्य वह परमेश्वर से चाहे जो शुभ हो; सबके कल्याण का साधन बने, किसी को सताने में उसका प्रयोग न करे॥१२॥ अष्टम मण्डल में अठानवेवाँ सूक्त व दूसरा वर्ग समाप्त॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( शुष्मिन् ) बलशालिन् ! हे (शतक्रतो) अपरिमित कर्मसामर्थ्य से सम्पन्न ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से प्रेमपूर्वक बुलाये गये ! ( वाजयन्तं त्वां ) बड़े ऐश्वर्य और ज्ञान प्रदान की कामना करने वाले तुझ से मैं प्रार्थना करता हूं, ( सः ) वह तु ( नः सुवीर्यम् रास्व ) हमें उत्तम बल, वीर्य प्रदान कर। इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुवीर्यम्
पदार्थ
[१] हे (शुष्मिन्) = शत्रुओं के शोषक बल से सम्पन्न ! (पुरुहूत) = बहुतों के पुकारे जानेवाले (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्ति से सम्पन्न प्रभो ! (वाजयन्तम्) = हमारे साथ सम्पर्कवाले (त्वाम् उपब्रुवे) = आपको ही मैं पुकारता हूँ। [२] हे प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिये (सुवीर्यं रास्व) = उत्तम शक्ति को दीजिये।
भावार्थ
भावार्थ- सर्वशक्तिमान् प्रभु उपासक के साथ भी शक्ति को जोड़ते हैं। हमें भी प्रभु सुवीर्य को प्राप्त करायें। अगले सूक्त में भी 'नृमेध' ही 'इन्द्र' का स्तवन कर रहा है-
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