ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
त्वामि॒दा ह्यो नरोऽपी॑प्यन्वज्रि॒न्भूर्ण॑यः । स इ॑न्द्र॒ स्तोम॑वाहसामि॒ह श्रु॒ध्युप॒ स्वस॑र॒मा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । इ॒दा । ह्यः । नरः॑ । अपी॑प्यन् । व॒ज्रि॒न् । भूर्ण॑यः । सः । इ॒न्द्र॒ । स्तोम॑ऽवाहसाम् । इ॒ह । श्रु॒धि॒ । उप॑ । स्वस॑रम् । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिदा ह्यो नरोऽपीप्यन्वज्रिन्भूर्णयः । स इन्द्र स्तोमवाहसामिह श्रुध्युप स्वसरमा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । इदा । ह्यः । नरः । अपीप्यन् । वज्रिन् । भूर्णयः । सः । इन्द्र । स्तोमऽवाहसाम् । इह । श्रुधि । उप । स्वसरम् । आ । गहि ॥ ८.९९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of mind and soul, wielder of adamantine will and energy, zealous celebrants and leading lights serve and adore you today as ever before in the past. Thus adored and contemplated, listen to the prayers of the devotees in meditation, come and arise in your own abode of the sage’s heart.
मराठी (1)
भावार्थ
श्रवण, मनन, निदिध्यासन इत्यादी योगक्रियांद्वारे माणसाने मनाला शक्तिवान बनवावे व त्याला इकडे तिकडे भटकू न देता या शरीररूपी घराचा अधिष्ठाता बनवावे ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वज्रिन्) शक्तियुक्त मन! (भूर्णयः) तेरे भरण-पोषण कर्ता (नरः) साधक जनों ने (त्वाम्) तुझे (इदा) आज भी (ह्यः) पहले भी (अपीप्यत्) तृप्त किया था। वह तू प्रभु! (स्तोमवाहसः) तुझे प्रशंसित बनाने वाले साधकों की बात (श्रुधि) सुन ः (इह उपस्वसरम्) यहाँ स्वघर को (आ, गहि) आ जा॥१॥
भावार्थ
श्रवण, मनन, निदिध्यासन इत्यादि योग-क्रियाओं के द्वारा मानव मन को ही शक्तिशाली बनाये और यत्र-तत्र न जाने देकर उसे इस अपने शरीर आदि रूपी घर का अधिष्ठाता बनाए॥१॥
विषय
राजा प्रजा के व्यवहारों के साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( वज्रिन् ) शक्तिशालिन् ! ( भूर्णयः ) प्रजाओं के उत्तम पालनकर्त्ता ( नरः ) नायक जन ( इदा ह्यः ) अब तब, और पूर्ववत् अब और आगे भी, ( त्वाम् अपीप्यन् ) तुझे ही बढ़ावें। ( सः ) वह ( स्तोमवाहसाम् ) स्तुति धारण करने वालों की प्रार्थना को (इह श्रुधि) इस अवसर में श्रवण कर और (स्वसरम् उप आ गहि) गृहवत् राष्ट्र को तू प्राप्त हो। ( २ ) परमेश्वर, सबकी प्रार्थना श्रवण करता है और ( स्वसरम् ) अपने से व्याप्त विश्व को प्राप्त है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषि:॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराड् बृहती॥ २ बृहती। ३, ७ निचृद् बृहती। ५ पादनिचृद बृहती। ४, ६, ८ पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
भूर्णयः नरः
पदार्थ
[१] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त - क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथ में लिये हुए प्रभो ! (त्वाम्) = आपको (ह्यः) = बल, अर्थात् गत समय में तथा इव - [ इदानीम् ] अब भी ये (भूर्णयः) = भरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोग (अपीप्यन्) = स्तुतियों के द्वारा बढ़ाते हैं। [२] हे (इन्द्र) = शत्रु - विद्रावक प्रभो ! (सः) = वे आप (इह) = यहाँ (स्तोमवाहसाम्) = स्तुति-समूहों का वहन करनेवाले इन उपासकों के स्तोत्र को (श्रुधि) = सुनिये। (स्व सरम्) = आत्मतत्व की ओर चलनेवाले इस उपासक को उप (आ गहि) = समीपता से प्राप्त होइये। नि० ३.४ में 'स्वसरम्' गृह का नाम है। तब अर्थ इस प्रकार होगा कि (स्वसरं उपागहि) = हमारे घर में प्राप्त होइये।
भावार्थ
भावार्थ भरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त होकर हम प्रभु का उपासन करें। हम स्तोताओं की प्रार्थना को प्रभु सुने और हमें प्राप्त हो।
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