ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
इन्द्र॒मच्छ॑ सु॒ता इ॒मे वृष॑णं यन्तु॒ हर॑यः । श्रु॒ष्टी जा॒तास॒ इन्द॑वः स्व॒र्विद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । अच्छ॑ । सु॒ताः । इ॒मे । वृष॑णम् । य॒न्तु॒ । हर॑यः । श्रु॒ष्टी । जा॒तासः॑ । इन्द॑वः । स्वः॒ऽविदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः । श्रुष्टी जातास इन्दवः स्वर्विद: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । अच्छ । सुताः । इमे । वृषणम् । यन्तु । हरयः । श्रुष्टी । जातासः । इन्दवः । स्वःऽविदः ॥ ९.१०६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(स्वर्विदः) ज्ञानादिगुणाः (इन्दवः) ये प्रकाशस्वरूपाः (जातासः) सर्वत्र विद्यमानाः (सुताः) उपासनया साक्षात्त्वं प्राप्ताः (हरयः) दुःखस्य हर्तारः (इमे) इमे परमात्मगुणाः (वृषणम्) कर्मद्वारा उद्योगवर्षुकं (इन्द्रम्) कर्मयोगिनं (श्रुष्टी) सत्वरं (अच्छ, यन्तु) साधु लभन्ताम् ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(स्वर्विदः) ज्ञानादिगुण (इन्दवः) जो प्रकाशस्वरूप हैं, (जातासः) जो सर्वत्र विद्यमान हैं और जो (सुताः) संस्कृत अर्थात् उपासना द्वारा जो साक्षात्कार को प्राप्त हैं, (हरयः) जो सब दुःखों के हरण करनेवाले हैं, (इमे) ये परमात्मा के सब गुण (वृषणम्) कर्मद्वारा उद्योग की वृष्टि करनेवाले (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (श्रुष्टी) शीघ्र (अच्छ, यन्तु) प्राप्त हों ॥१॥
भावार्थ
जो पुरुष उद्योगी हैं अर्थात् कर्मयोगी हैं, उनको परमात्मा के गुणों की उपलब्धि अवश्यमेव होती है ॥१॥
विषय
स्वर्विदः
पदार्थ
(इमे) = ये (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए (हरयः) = सर्व रोग हर सोमकण (वृषणम्) शक्तिशाली (इन्द्रं) = जितेन्द्रिय पुरुष की (अच्छ) = ओर (यन्तु) = गति वाले हों । जितेन्द्रिय पुरुष ही इनका रक्षण कर पाता है । (जातासः) = उत्पन्न हुए हुए ये (इन्दवः) = सोमकण श्रुष्टी शीघ्र ही (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले होते हैं। ये ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं, बुद्धि को तीव्र बनाते हैं, और इस प्रकार ज्ञान को प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष इन सोमकणों का रक्षण करता है। रक्षित सोमकण प्रकाश को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
पवमान सोम। देह में वीर्यों के तुल्य राष्ट्र में सर्वसुख साधक विद्वानों की प्रभु की उपासना।
भावार्थ
(श्रुष्टी जातासः) अन्न द्वारा उत्पन्न (स्व:-विदः इन्दवः) सुख जनक वीर्यगण जिस प्रकार (वृषणम्) वीर्यसेचक अंग को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (इमे) ये (सुताः) उत्पादित वा प्रेरित, (हरयः) समस्त विद्वान् (इन्दवः) इस प्रभु के उपासक जन, (स्वर्विदः) प्रभु के प्रकाशमय और शब्दमय रूप को जानने वाले विद्वान् (श्रुष्टी) शीघ्र ही (जातासः) उत्पन्न होकर (वृषणम्) बलवान् सर्वसुख सेचक (इन्द्रम्) उस प्रभु को (अच्छ यन्तु) प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि:-१-३ अग्निश्चाक्षुषः। ४–६ चक्षुर्मानवः॥ ७-९ मनुराप्सवः। १०–१४ अग्निः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ८, १०, १४ निचृदुष्णिक्। २, ५–७, ११, १२ उष्णिक् । ९,१३ विराडुष्णिक्॥ चतुदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May these realised, cleansed and confirmed, blessed, beautiful and brilliant virtues and sanskars touching the bounds of divine bliss, emerging and risen in the mind, well reach and seep into the heart core of the soul completely and permanently.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष उद्योगी आहेत. अर्थात, कर्मयोगी आहेत त्यांना परमेश्वराच्या गुणांची उपलब्धी अवश्य होते. ॥१॥
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