ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ष धि॒या या॒त्यण्व्या॒ शूरो॒ रथे॑भिरा॒शुभि॑: । गच्छ॒न्निन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । धि॒या । या॒ति॒ । अण्व्या॑ । शूरः॑ । रथे॑भिः । आ॒शुऽभिः॑ । गच्छ॑न् । इन्द्र॑स्य । निः॒ऽकृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष धिया यात्यण्व्या शूरो रथेभिराशुभि: । गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । धिया । याति । अण्व्या । शूरः । रथेभिः । आशुऽभिः । गच्छन् । इन्द्रस्य । निःऽकृतम् ॥ ९.१५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषः) अयं परमात्मा (धिया अण्व्या) सूक्ष्मया स्वधारणशक्त्या (याति) सर्वत्र प्राप्नोति (रथेभिः) शक्तिभिः (आशुभिः) शीघ्रगाभिः (इन्द्रस्य निष्कृतम्) जीवान् उद्धर्तुम् (शूरः) अविद्यादिदोषान् शमयन् (गच्छन्) जगन्निर्माणरूपकर्म करोति ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषः) यह परमात्मा (धिया अण्व्या) सूक्ष्म अपनी धारणाशक्ति से (रथेभिः) सर्वत्र प्राप्त हो रहा है (आशुभिः) अपनी शीघ्रगामिनी शक्तियों से (इन्द्रस्य निष्कृतम्) जीवात्मा के उद्धार के लिये (शूरः) “शृणाति हन्तीति शूरः” अविद्यादि दोषों को हनन करनेवाला (गच्छन्) जगद्रचनारूप कर्म करता है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा जीवों को कर्मों का फल भुगाने के लिये इस संसाररूपी रचना को रचता है और अपनी विविध शक्तियों के द्वारा सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है अर्थात् जिस-२ स्थान में परमात्मा की व्यापकता है, उस-२ स्थान में परमात्मा अनन्त शक्तियों के साथ विराजमान है ॥१॥
विषय
लाभत्रयी
पदार्थ
[१] (एषः) = यह सोम (शूरः) = हमारे सब शत्रुओं को आधि-व्याधियों को शीर्ण करनेवाला है। (अण्व्या:) = सूक्ष्म (धिया) = बुद्धि से (याति) = हमें प्राप्त होता है । सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। [२] यह (आशुभिः) = शीघ्र गतिवाले, शीघ्रता से मार्ग को व्यापनेवाले (रथेभिः) = शरीर रूप रथों से हमें प्राप्त होता है । रक्षित सोम शरीर को दृढ़ व क्रियाशील बनाता है। [३] यह (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (निष्कृतम्) = परिष्कृत हृदय को (गच्छन्) = प्राप्त होता है। सोम से हृदय निर्मल हो उठता है । सुरक्षित सोमवाले पुरुष को 'ईर्ष्या-द्वेष- क्रोध' पीड़ित नहीं करते ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से [क] बुद्धि सूक्ष्म बनती है, [ख] शरीर स्फूर्तिमय होता है, [ग] हृदय पवित्र बन जाता है।
विषय
पवमान सोम। राजा का आगे उन्नति-पथ में प्रयाग।
भावार्थ
(एषः) वह (इन्द्रस्य निष्कृतम्) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता के पद को प्राप्त होता हुआ (शूरः) शूरवीर (आशुभिः रथेभिः) वेग से जाने वाले रथों, साधनों और रथसैन्यों सहित (अण्व्या धिया) सूक्ष्म बुद्धि और जन हितैषी कर्म से (याति) प्रयाण करे, आगे बढ़े।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३ - ५, ८ निचृद गायत्री। २, ६ गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This Soma, spirit of peace and joy, brave dispeller of darkness, moves with the subtlest intelligence and awareness and comes by the fastest media of psychic communication and comes to the seat of its presence in the mind and soul of man.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर जीवाला कर्माचे फळ भोगण्यासाठी या जगाची रचना करतो व तो आपल्या विविध शक्तींद्वारे सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे. अर्थात ज्या ज्या स्थानी परमात्म्याची व्यापकता आहे त्या त्या स्थानी परमात्मा अनंत शक्तीद्वारे विराजमान आहे. ॥१॥
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