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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र ते॑ सो॒तार॑ ओ॒ण्यो॒३॒॑ रसं॒ मदा॑य॒ घृष्व॑ये । सर्गो॒ न त॒क्त्येत॑शः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । सो॒तारः॑ । ओ॒ण्योः॑ । रस॑म् । मदा॑य । घृष्व॑ये । सर्गः॑ । न । त॒क्ति॒ । एत॑शः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते सोतार ओण्यो३ रसं मदाय घृष्वये । सर्गो न तक्त्येतशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । सोतारः । ओण्योः । रसम् । मदाय । घृष्वये । सर्गः । न । तक्ति । एतशः ॥ ९.१६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सात्त्विकरसोत्पादका रसा वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (प्रसोतारः) भो जिज्ञासवः ! (ते) युष्माकम् (मदाय) आनन्दाय (घृष्वये) शत्रुनिवर्हणाय (ओण्योः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (रसम्) सौम्यस्वभावप्रदाता रसः भवदर्थं (सर्गः) सृष्टः यः (एतशः न तक्ति) विद्युदिव तीक्ष्णतां ददाति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सात्त्विक भाव को उत्पन्न करनेवाले रसों का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (प्रसोतारः) हे जिज्ञासु लोगो ! (ते) तुम्हारे (मदाय) आनन्द के लिये और (घृष्वये) शत्रुओं के नाश के लिये (ओण्योः) द्यावापृथिवी के मध्य में (रसम्) सौम्य स्वभाव का देनेवाला रस (सर्गः) बनाया है, जो (एतशः न तक्ति) विद्युत् के समान तीक्ष्णता देनेवाला है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! तुम ऐसे रस का पान करो, जिससे तुम में बल उत्पन्न हो और शत्रुओं पर विजयी होने के लिये तुम सिंह के समान आक्रमण कर सको ! यहाँ इस रस के अर्थ किसी रसविशेष के नहीं किन्तु आह्लादजनक रसमात्र के हैं ॥ वा यों कहो कि सौम्य स्वभाव उत्पन्न करनेवाले रस के हैं, इसलिये इसको सोमरस भी कहा जा सकता है और ‘धात्वर्थ’ भी इसका यह है कि ‘रस आस्वादने रस्यते स्वाद्यत इति’ जो आनन्द से वा आनन्द के लिये आस्वादन किया जाय, उसका नाम यहाँ रस है। इस प्रकरण में यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि सोम के अर्थ रस के और कहीं सोम के अर्थ ईश्वर के ऐसा व्यत्यय क्यों ? इसका उत्तर यह है कि “स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” २।३।५। इस ब्रह्मसूत्र में इस बात का निर्णय कर दिया है कि एक प्रकरण ही नहीं, किन्तु एक वाक्य में भी तात्पर्य भेद से दो अर्थ हो जाते हैं, जैसे कि “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्म” तै० ३।२। तप से ब्रह्म की जिज्ञासा करो और तप ब्रह्म है। यहाँ पहले ब्रह्म शब्द के अर्थ ईश्वर के और द्वितीय ब्रह्म शब्द के अर्थ तप के हैं और यह नियम वेद ब्राह्मण उपनिषद् और शास्त्र सर्वत्र ही पाया जाता है, जैसे कि शतपथ में यज्ञ नाम यज्ञ का भी और यज्ञ नाम ईश्वर का भी है। अग्नि नाम भौतिक अग्नि का भी और अग्नि नाम ईश्वर का भी है ॥ इस नियम के अनुसार यहाँ सोम के अर्थ कहीं सोम रस के और कहीं ईश्वर के किये गये हैं, इसमें कोई दोष नहीं ॥१॥

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    विषय

    मदाय धृष्वये

    पदार्थ

    [१] हे सोम ! (ओण्योः) = द्यावापृथिवी में मस्तिष्क व शरीर में (मदाय) = आनन्द [हर्ष] के लिये तथा (घृष्वये) = शत्रुओं के घर्षण के लिये मस्तिष्क में ज्ञान के प्रकाश से आनन्द की प्राप्ति के लिये तथा शरीर में रोगकृमियों के विनाश के लिये (ते रसम्) = तेरे रस को [सार को] (प्रसोतारः) = प्रकर्षेण उत्पन्न करने के लिये होते हैं। सोम [वीर्य] का सार ही ओजस् है । इस ओजस्विता से मस्तिष्क में [splendour, light] प्रकाश होता है, तथा शरीर में [bodily strength] शक्ति उत्पन्न होती है। [२] (सर्गः) = [सृष्टः ] उत्पन्न हुआ हुआ यह सोम (एतशः न) = अश्व की तरह (तक्ति) = गतिवाला होता है । इस सोम के द्वारा शरीर के सब इन्द्रियाश्व शक्तिशाली बनते हैं । शक्तिशाली बनकर ये शरीर रथ का उत्तम संचालन करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम उल्लास व शत्रु विनाश के लिये होता है। इससे इन्द्रिय अश्व शक्ति सम्पन्न बनकर शरीर रथ को तीव्र गति से मार्ग पर ले चलते हैं ।

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    विषय

    पवमान सोम। अभिषेक करने का मुख्य प्रयोजन, शत्रुओं के संघर्ष से विजय प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे वीर पुरुष ! (मदाय) आनन्द लाभ और (घृष्वये) शत्रुओं के साथ संघर्ष अर्थात् उनकी प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये (सोतारः) अभिषेक्ता जन (ओण्योः) आकाश और पृथिवी के तुल्य परस्पर रक्ष्य-रक्षक, शास्य-शासक वर्गों के (रसं) बलस्वरूप (ते) तुझे वे अभिषिक्त करते हैं। और तू (सर्गः न एतशः) शुभ्र वर्ण के जल वा वेगवान् छूट भागे अश्व के समान (तक्ति) जावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, spirit of peace and bliss, your devotees, in order to win the highest attainments of life and to experience the joy of divinity, meditate and sojourn over spaces between heaven and earth and find the divine essence of existence, and then omnipresent divinity flows like a flood into their consciousness. O man, that essence of experience is for you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपदेश करतो की हे माणसांनो! तुमच्यात बल उत्पन्न होईल अशा रसाचे पान करा. त्यामुळे शत्रूंवर विजय प्राप्त करण्यासाठी सिंहासारखे आक्रमण करू शकाल, येथे रसाचा अर्थ एखाद्या विशेष रसाचा नसून आल्हाददायक रस होय.

    टिप्पणी

    असे म्हणता येईल की सौम्यस्वभाव उत्पन्न करणारे असल्यामुळे हा रस सोमरस आहे व याचा धात्वर्थ ही असा आहे की ‘‘रस आस्वादने रस्यते स्वाद्यत इति रस:’’ जे आनंदाने किंवा आनंदासाठी आस्वादन केले जाते त्याचे नाव येथे रस आहे. या प्रकरणात ही शंका करू नये की कुठे सोमचा अर्थ रस व कुठे सोमचा अर्थ ईश्वर असा व्यत्यय का? याचे उत्तर असे की ‘‘स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत’’ २।३।५ या ब्रह्मसूत्रात या गोष्टीचा निर्णय केलेला आहे की एक प्रकरणच नाही तर एका वाक्यातही तात्पर्य भेदाने दोन दोन अर्थ होतात जसे ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व’’ ‘‘तपो ब्रह्मा’’ तै. ३।२ तप करून ब्रह्माची जिज्ञासा करा व तप ब्रह्म आहे येथे प्रथम ब्रह्म शब्दाचा अर्थ ईश्वर व द्वितीय ब्रह्म शब्दाचा अर्थ तप आहे व हा नियम वेद, ब्राह्मण, उपनिषद व शास्त्र सर्वत्र आढळतो. जसे शतपथमध्ये यज्ञाचे नाव यज्ञही आहे व यज्ञ नाव ईश्वराचे ही आहे. अग्नी नाव भौतिक अग्नीचे ही आहे व अग्नी नाव ईश्वराचेही आहे. $ या नियमानुसार येथे सोमचा अर्थ कुठे सोमरस तर कुठे ईश्वर असा आहे यात काही दोष नाही. ॥१॥

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