ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
प्र सोमा॑सो मद॒च्युत॒: श्रव॑से नो म॒घोन॑: । सु॒ता वि॒दथे॑ अक्रमुः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सोमा॑सः । म॒द॒ऽच्युतः॑ । श्रव॑से । नः॒ । म॒घोनः॑ । सु॒ताः । वि॒दथे॑ । अ॒क्र॒मुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोमासो मदच्युत: श्रवसे नो मघोन: । सुता विदथे अक्रमुः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सोमासः । मदऽच्युतः । श्रवसे । नः । मघोनः । सुताः । विदथे । अक्रमुः ॥ ९.३२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मन उपलब्धिरुच्यते |
पदार्थः
(मदच्युतः) आनन्दप्रवाहः (सुताः) स्वयम्भूः (सोमासः) परमात्मा (विदथे) यज्ञे (मघोनः नः) जिज्ञासोर्मम (श्रवसे) ऐश्वर्याय (प्राक्रमुः) आगत्य प्राप्तो भवति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा की उपलब्धि का कथन करते हैं।
पदार्थ
(मदच्युतः) आनन्द का स्त्रोत (सुताः) स्वयम्भू (सोमासः) परमात्मा (विदथे) यज्ञ में (मघोनः नः) मुझ जिज्ञासु के (श्रवसे) ऐश्वर्य के लिये (प्राक्रमुः) आकर प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
जो पुरुष शुद्ध भाव से यज्ञ करते हैं, उनको परमात्मा अपने आनन्दस्त्रोत से सदैव अभिषिक्त करता है। यज्ञ के अर्थ यहाँ (१) शुद्धान्तःकरण से ईश्वरोपासन, (२) ब्रह्मविद्यादि उत्तमोत्तम पदार्थों का दान (३) और कला-कौशल द्वारा विद्युदादि पदार्थों को उपयोग में लाना, ये तीन हैं। जो पुरुष उक्त पदार्थों की संगति करनेवाले यज्ञों को करता है, वह अवश्यमेव ऐश्वर्यसम्पन्न होता है ॥१॥
विषय
श्रवसे विदथे
पदार्थ
[१] (सोमासः) = शरीरस्थ सोम [वीर्य] कण (मदच्युतः) = [मदस्राविण:] हमारे जीवनों में उल्लास को पैदा करनेवाले हैं। (मघोनः) = [मघ-मख] यज्ञशील (नः) = हमारे प्रति (सुता:) = उत्पन्न हुए- हुए ये सोमकण (अक्रमुः) = प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं। यज्ञशीलता हमें विषय-वासनाओं से बचाती है और इस प्रकार हमें सोमरक्षण के योग्य बनाती है। [२] इस प्रकार यज्ञशीलता से शरीर में सुरक्षित हुए हुए सोमकण (श्रवसे) = यशस्वी जीवन के लिये तथा (विदथे) = ज्ञान प्राप्ति के लिये होते हैं। सोम के रक्षण से हमारे बल उत्तम होते हैं, वे कर्म हमारे यश का कारण बनते हैं। तथा इस सोमरक्षण से हमारे ज्ञान की भी वृद्धि होती है । सोम कर्मेन्द्रियों को सशक्त तथा ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानदीप्त बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञशीलता के द्वारा शरीर में सुरक्षित सोम हमारे उल्लास का कारण होता हुआ हमारे कर्मों को यशस्वी बनाता है तथा हमारे ज्ञान को दीप्त करता है।
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
(सोमासः) वीर्यवान्, ज्ञान का सम्पादन करने वाले, ब्रह्मचारी गण (मद-च्युतः) हर्षप्रद होकर (सुताः) विद्या और व्रत में निःष्णात हो कर (नः मघोनः) हम उत्तम धन वालों के पास (श्रवसे) अन्न धनादि प्राप्त करने के लिये (विदथे) यज्ञों में (प्र अक्रमुः) आदरपूर्वक प्राप्त हों। इसी प्रकार ज्ञान रूप धनों के स्वामी गुरु जनों को शिष्य और राजाओं को वीरवत् ज्ञानोपार्जन और संग्राम के निमित्त प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः-१, २ निचृद् गायत्री। ३-६ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the streams of soma, nectar sweet and exhilarating, distilled and sanctified in yajna, flow for the safety, security and fame of our leading lights of honour, power and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष शुद्ध भावाने यज्ञ करतात. त्यांना परमात्मा आपल्या आनंद स्रोताने सदैव अभिषिक्त करतो. यज्ञाचे येथे तीन अर्थ आहेत १) शुद्ध अंत:करणाने ईश्वरोपासना २) ब्रह्मविद्या इत्यादी उत्तमोत्तम पदार्थांचे दान ३) कला कौशल्य इत्यादीद्वारे विद्युत इत्यादी पदार्थ उपयोगात आणणे. जो पुरुष वरील पदार्थांची संगती करणारे यज्ञ करतो. तो अवश्य ऐश्वर्यसंपन्न होतो. ॥१॥
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