ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सना॑ च सोम॒ जेषि॑ च॒ पव॑मान॒ महि॒ श्रव॑: । अथा॑ नो॒ वस्य॑सस्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठसना॑ । च॒ । सो॒म॒ । जेषि॑ । च॒ । पव॑मान । महि॑ । श्रवः॑ । अथ॑ । नः॒ । वस्य॑सः । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रव: । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठसना । च । सोम । जेषि । च । पवमान । महि । श्रवः । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥ ९.४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाभ्युदयाय विजयाय आत्मसुखाय च निःश्रेयसं वर्ण्यते।
पदार्थः
(सोम) हे सौम्यस्वभावयुक्त परमात्मन् ! (महि, श्रवः) सर्वतो दातृतमः (च) तथा च (पवमान) पवित्र ! त्वं (जेषि) पापिनो जय (च) किञ्च सदा (नः) अस्मभ्यं (वस्यसः, कृधि) कल्याणं देहि (सन) नो भज ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उक्त परमात्मा से अभ्युदय के लिये विजय और आत्मसुख के लिये निःश्रेयस की प्रार्थना वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(सोम) हे सौम्यस्वभावयुक्त परमात्मन् ! (महि, श्रवः) सर्वोपरिदाता तथा (च) और (पवमान) पवित्र (जेषि) पापियों का नाश करो (च) किन्तु सदा के लिये (नः) हमको (वस्यसस्कृधि) कल्याण देकर (सन) हमारी रक्षा करें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों के दाता हैं। जिन लोगों को अधिकारी समझते हैं, उनको अभ्युदय नाना प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करते हैं और जिसको मोक्ष का अधिकारी समझते हैं, उसको मोक्षसुख प्रदान करते हैं। जो मन्त्र में जेषि यह शब्द है, इसके अर्थ परमात्मा की जीत को बोधन नहीं करते, किन्तु तदनुयायियों की जीत को बोधन करते हैं। क्योंकि परमात्मा तो सदा ही विजयी है। वस्तुतः न उसका कोई शत्रु और न उसका कोई मित्र है। जो सत्कर्म्मी पुरुष हैं, वे ही उसके मित्र कहे जाते हैं और जो असत्कर्म्मी हैं, उन में शत्रुभाव आरोपित किया जाता है। वास्तव में ये दोनों भाव मनुष्यकल्पित हैं। ईश्वर सदा सबके लिये समदर्शी है ॥१॥
विषय
विजय तथा ज्ञान प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले (सोम) = वीर्य ! तू हमारे लिये (महि श्रवः) = महान् ज्ञान को (सना) = प्राप्त करा । (च) = और तू ही तो (जेषि) = हमारे लिये सब विजयों को करता है। [२] (अथा) = अब महनीय ज्ञानों को प्राप्त कराके तथा सब वासनाओं को पराभूत करके (नः) = हमें (वस्यसः) = उत्कृष्ट जीवनवाला (कृधि) = करिये। इस शरीर में हमारा निवास हो । जीवन का वास्तविक उत्कर्ष यही है कि हम वासनाओं से पराभूत न हों तथा ज्ञान प्राप्ति के द्वारा प्रकाशमय जीवनवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ-सोमरक्षण द्वारा विजयी बनकर व ज्ञान को प्राप्त करके हम उत्कृष्ट जीवनवाले हों ।
विषय
पवमान सोम। राजा से जैसे वैसे प्रभु से प्रजा की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे (पवमान) पवित्र करने हारे वा राज्याभिषेक विधि से पावन किये जाने हारे ! तू हमें (महि श्रवः सन च) बड़ा भारी ज्ञानोपदेश, यश और धन प्रदान कर। स्वयं प्राप्त कर और (जेषि च) विजय कर (अथ नः वस्यसः कृधि) हमें उत्तम २ धन सम्पन्न करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ४, १० गायत्री। २, ५, ८, ९ निचृद् गायत्री। ६, ७ विराड् गायत्री ॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, divine spirit of peace and joy, eternal power of love and friendship, most renowned giver of food and sustenance, win over the opponents and make us happy and prosperous, more and ever more.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर अभ्युदय व नि:श्रेयस या दोन्हींचा दाता आहे. ज्यांना तो पात्र समजतो त्यांना अभ्युदय, नाना प्रकारचे ऐश्वर्य प्रदान करतो व ज्याला मोक्षाचा अधिकारी समजतो. त्याला मोक्षसुख प्रदान करतो.
टिप्पणी
मंत्रात जो जेषि हा शब्द आहे. त्याचा अर्थ परमेश्वराच्या विजयाचे बोधन करत नाही तर त्या अनुयायांच्या विजयाचे बोधन करतो. परमात्मा तर सदैव विजयीच असतो. वास्तविकता ही आहे की, त्याचा कोण शत्रू नाही व कोणी मित्र नाही. जे सत्कर्मी पुरुष असतात तेच त्याचे मित्र म्हणविले जातात व जे असत्कर्मी आहेत त्यांच्यावर शत्रूवाद आरोपित केला जातो. वास्तविक हे दोन्ही भाव मानवकल्पित आहेत. ईश्वर सदैव सर्वांसाठी समदर्शी आहे. ॥१॥
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