ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
समि॑द्धो वि॒श्वत॒स्पति॒: पव॑मानो॒ वि रा॑जति । प्री॒णन्वृषा॒ कनि॑क्रदत् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धः । वि॒श्वतः॑ । पतिः॑ । पव॑मानः । वि । रा॒ज॒ति॒ । प्री॒णन् । वृषा॑ । कनि॑क्रदत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो विश्वतस्पति: पवमानो वि राजति । प्रीणन्वृषा कनिक्रदत् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धः । विश्वतः । पतिः । पवमानः । वि । राजति । प्रीणन् । वृषा । कनिक्रदत् ॥ ९.५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः स्वतःप्रकाशत्वं वर्ण्यते।
पदार्थः
(समिद्धः) यो हि सर्वत्र प्रकाशकः (विश्वतस्पतिः) यश्च सर्वथा पतिरस्ति (पवमानः) पावयिता सः (विराजति) सर्वत्र द्योतते विभूत्या प्रकाशते (प्रीणन्) स एवेश्वरः सर्वजनेषु तृप्तिमुत्पादयन् (वृषा) सर्वकामान् वर्षुकः (कनिक्रदत्) स्वविचित्रभावैरुपदिशन् नः पुनातु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा की स्वतःप्रकाशता का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(समिद्धः) जो सर्वत्र प्रकाशमान है, (विश्वतस्पतिः) सब प्रकार से जो स्वामी है, (पवमानः) पवित्र करनेवाला परमात्मा (विराजति) सर्वत्र विराजमान हो रहा है, (प्रीणन्) वह सबको आनन्द देता हुआ (वृषा) सब कामनाओं का पूरक (कनिक्रदत्) अपने विचित्र भावों से उपदेश करता हुआ हमको पवित्र करे ॥१॥
भावार्थ
इस संसार में परमात्मा ही केवल ऐसा पदार्थ है, जो स्वसत्ता से विराजमान है अर्थात् जो परसत्ता की सहायता नहीं चाहता। अन्य प्रकृति तथा जीव परमात्मसत्ता के अधीन होकर रहते हैं, इसी अभिप्राय से परमात्मा को यहाँ समिद्ध कहा गया है अर्थात् स्वप्रकाशरूपता से वर्णन किया गया है ॥१॥
विषय
'समिद्ध' सोम
पदार्थ
[१] शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। ज्ञानाग्नि को दीप्त करने के कारण यहाँ सोम को 'समिद्ध' कहा गया है। सब ओर से शरीर का रक्षण करनेवाला यह 'विश्वतस्पति' है। पवित्र करनेवाला होने से 'पवमान' है। मस्तिष्क को यह 'समिद्ध' करता है। शरीर को 'रक्षित' करता है। मन को पवित्र बनाता है । मस्तिष्क के ज्ञानदीप्त होने से मैं 'काश्यप ' बनता हूँ। शरीर के रोगों से अनाक्रान्त होने से मैं 'अ-सित' = अबद्ध होता हूँ । मन में पवित्रता के कारण 'देवल' होता हूँ । [२] (समिद्धः) = ज्ञान को दीप्त करनेवाला, (विश्वतस्पतिः) = शरीर को सर्वतः सुरक्षित करनेवाला (पवमानः) = मेरे मन को पवित्र करनेवाला यह सोम (विराजति) = मेरे शरीर में दीप्त होता है। [३] (प्रीणन्) [प्रीणयन् ] = यह ज्ञानदीप्ति नीरोगता तथा पवित्रता से हमें प्रीणित करता है। (वृषा) = हमें शक्तिशाली बनाता है। (कनिक्रदत्) = हमें प्रभु के आह्वान की वृत्तिवाला बनाता है । सोम मानो सुरक्षित होकर प्रभु का आह्वान करता है, प्रभु की आराधना करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम 'समिद्ध, विश्वतस्पति व पवमान' है। यह मेरे लिये 'प्रसन्नता, शक्ति व प्रभु की आराधना' का कारण बनता है ।
विषय
पवमानसोम। प्रजा प्रिय उत्तम राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(समिद्धः) खूब तेजस्वी, (विश्वतः पतिः) सब प्रकार से प्रजाओं का पालन करने वाला, (पवमानः) सबको पवित्र करता हुआ, वा अभिषेक द्वारा अपने को पवित्र करता हुआ (प्रीणन्) सबको प्रसन्न करता है और वह (वृषा) बलवान्, उत्तम प्रबन्धक, प्रजा पर सुखों, ऐश्वयों की वर्षा करता हुआ, (कनिक्रदत्) हर्ष ध्वनि, गर्जना और घोषणाएं देता हुआ, (वि राजति) विशेष राजावत् शोभा प्राप्त करता है। (२) इसी प्रकार तेजस्वी, (सोमः) ब्रह्मचारी, बलिष्ठ, विद्वान् स्नातक होकर स्त्री का सर्वस्व पति हो। (३) वैसा ही परमेश्वर विश्वतः पालक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Refulgent sovereign ruler and sustainer of the world, Pavamana, pure and purifying, shines in glory, giving fulfilment to all, generous and virile, roaring as thunder all round.
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात परमात्माच केवळ असा पदार्थ आहे जो स्वसत्तेने विराजमान आहे. अर्थात जो इतरांचे साह्य इच्छित नाही इतर प्रकृती व जीव परमात्मसत्तेच्या अधीन होऊन राहतात. याच अभिप्रायाने परमात्म्याला येथे समिद्ध (प्रकाशमान) म्हटलेले आहे. अर्थात् स्वप्रकाशरूपाद्वारे वर्णन केले गेलेले आहे. ॥१॥
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